Bhagwat Geeta 15 adhyay, or mahatmy in hindi

श्रीमद्भगवद्गीता 15 अध्याय व माहात्म्य ।। Bhagwat Geeta 15 adhyay

 

साधकों आप के लिए प्रस्तुत “Bhagwat Geeta 15 adhyay” श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 15 व माहात्म्य हिन्दी व संस्कृत सहित

Bhagwat Geeta 15 adhyay, or mahatmy in hindi

श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें अध्यायका माहात्म्य

श्रीमहादेवजी कहते हैं पार्वती ! अब गीता के पंद्रहवें अध्याय का माहात्म्य सुनो। गौड़देश में कृपाण-नरसिंह नामक एक राजा थे, जिनकी तलवार की धार से युद्ध में देवता भी परास्त हो जाते थे। उनका बुद्धिमान् सेनापति शस्त्र और शास्त्र की कलाओं का भण्डार था। उसका नाम था सरभ मेरुण्ड। उसकी भुजाओं में प्रचण्ड बल था। एक समय उस पापी ने राजकुमारों सहित महाराज का वध करके स्वयं ही राज्य करने का विचार किया। इस निश्चय के कुछ ही दिनों बाद वह हैजे का शिकार होकर मर गया। थोड़े समय में वह पापात्मा अपने पूर्वकर्म के कारण सिन्धुदेश में एक तेजस्वी घोड़ा हुआ। उसका पेट सटा हुआ था। घोड़े के लक्षणों का ठीक-ठीक ज्ञान रखने वाले किसी वैश्य के पुत्र ने बहुत-सा मूल्य देकर उस अश्वको खरीद लिया और यत्न के साथ उसे राजधानीतक वह ले आया ।

वैश्य कुमार वह अश्व राजा को देने को लाया था । यद्यपि राजा उस वैश्यकुमार से परिचित थे, तथापि द्वारपाल ने जाकर उसके आगमन की
सूचना दी। राजाने पूछा- ‘किस लिये आये हो?’ तब उसने स्पष्ट शब्दों में उत्तर दिया-‘देव ! सिन्धुदेश में एक उत्तम लक्षणों से सम्पन्न अश्व था, जिसे तीनों लोकों का एक रत्न समझ कर मैंने बहुत-सा मूल्य देकर खरीद लिया है।’ राजा ने आज्ञा दी-‘उस अश्वको यहाँ ले आओ।’ वास्तव में वह घोड़ा गुणों में उच्चैःश्रवा के समान था । सुन्दर रूप का तो मानो घर ही था। शुभ लक्षणों का समुद्र जान पड़ता था। वैश्य घोड़ा ले आया और राजाने उसे देखा। अश्व का लक्षण जानने वाले अमात्यों ने इसकी बड़ी प्रशंसा की। सुनकर राजा अपार आनन्द में निमग्न हो गये और उन्होंने वैश्य को मुँह माँगा सुवर्ण देकर तुरंत ही उस अश्व को खरीद लिया।

Bhagwat Geeta 15 adhyay mahatmy

कुछ दिनों के बाद एक समय राजा शिकार खेलने के लिये उत्सुक हो उसी घोड़े पर चढ़कर वन में गये । वहाँ मृगों के पीछे इन्होंने अपना घोड़ा बढ़ाया। पीछे-पीछे सब ओरसे दौड़कर आते हुए समस्त सैनिकों का‌ साथ छूट गया। वे हिरनों द्वारा आकृष्ट होकर बहुत दूर निकल गये।
प्यास‌ ने उन्हें व्याकुल कर दिया। तब वे घोड़े से उतर कर जल की खोज करने लगे। घोड़े को तो उन्होंने वृक्ष की डाली में बाँध दिया और स्वयं एक चट्टान पर चढ़ने लगे। कुछ दूर जाने पर उन्होंने देखा कि एक पत्ते का‌ टुकड़ा हवा से उड़कर शिलाखण्ड पर गिरा है। उसमें गीताके पंद्रहवें अध्याय का आधा श्लोक लिखा हुआ था। राजा उसे बाँचने लगे। उनके मुख से गीता के अक्षर सुनकर घोड़ा तुरंत गिर पड़ा और अश्व-शरीर को छोड़कर तुरंत ही दिव्य विमानपर बैठकर वह स्वर्गलोक को चला गया।

तत्पश्चात् राजा‌ ने पहाड़ पर चढ़कर एक उत्तम आश्रम देखा, जहाँ नागकेशर, केले, आम और नारियल के वृक्ष लहरा रहे थे। आश्रम के भीतर एक ब्राह्मण बैठे हुए थे, जो संसार की वासनाओं से मुक्त थे। राजा ने उन्हें प्रणाम करके बड़ी भक्ति के साथ पूछा-‘ब्रह्मन् ! मेरा अश्व जो अभी-अभी स्वर्ग को चला गया है, उसमें क्या कारण है ?’ राजा की बात सुनकर त्रिकालदर्शी, मन्त्रवेत्ता एवं महापुरुषों में श्रेष्ठ विष्णु शर्मा नामक ब्राह्मण ने कहा-‘राजन् ! पूर्वकाल में तुम्हारे यहाँ जो ‘सरभमेरुण्ड’ नामक सेनापति था, वह तुम्हें पुत्रों सहित मार कर स्वयं राज्य हड़प लेने को तैयार था। इसी बीचमें हैजे का शिकार होकर वह मृत्यु को प्राप्त हो गया। उसके बाद वह उसी पाप से घोड़ा हुआ था।

Bhagwat Geeta 15 adhyay mahatmy

यहाँ कहीं गीता के पंद्रहवें अध्याय का आधा श्लोक लिखा मिल गया था, उसे ही तुम बाँचने लगे। उसी को तुम्हारे मुख से सुनकर वह अश्व स्वर्ग को प्राप्त हुआ है। तदनन्तर राजा के पार्श्ववर्ती सैनिक उन्हें ढूँढ़ते हुए वहाँ आ पहुँचे। उन सबके साथ ब्राह्मण को प्रणाम करके राजा प्रसन्नता पूर्वक वहाँ से चले और गीता के पंद्रहवें अध्याय के श्लोकाक्षरों से अङ्कित उसी पत्र को बाँच-बाँचकर प्रसन्न होने लगे। उनके नेत्र हर्ष से खिल उठे थे। घर आकर उन्होंने मन्त्रवेत्ता मन्त्रियों के साथ अपने पुत्र सिंहबल को राज्यसिंहासन पर अभिषिक्त किया और स्वयं पंद्रहवें अध्याय के जपसे विशुद्धचित्त होकर मोक्ष प्राप्त कर लिया।

ॐ श्रीपरमात्मने नमः

अथ पञ्चदशोऽध्यायः

श्रीभगवानुवाच

ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् । छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्। १।
अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः। अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके । २।
न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा । अश्वस्थमेनं सुविरूढमूलमसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा । ३।
ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः। तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी। ४।
निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः। द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसर्गिच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्।५।
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः । यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम । ६।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः । मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति । ७।

श्रीभगवानुवाच

शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः । गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्। ८।
श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च। अधिष्ठाय मनश्चार्य विषयानुपसेवते । ९॥
उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम्। विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः । १०।
यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् । यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः । ११ ।
यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम् । यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्। १२ ।
गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा । पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः। १३ ।
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः । प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम् । १४ ।

श्रीभगवानुवाच

सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च। वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्। १५ ।
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च । क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते । १६ ।
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः । यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः । १७ ।
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः । अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः । १८।
यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम् । स सर्वविद्धजति मां सर्वभावेन भारत । १९ ।
इति गुह्यतम शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ । एतदबुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत । २० ।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे
पुरुषोत्तमयोगो नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५॥

ॐ श्रीपरमात्मने नमः

पंद्रहवाँ अध्याय

उसके उपरान्त श्रीकृष्णभगवान् फिर बोले कि हे अर्जुन ! आदि पुरुष परमेश्वर रूप मूल वाले और ब्रह्मारूप मुख्य शाखा वाले जिस संसार रूप पीपल के वृक्ष को अविनाशी कहते हैं तथा जिसके वेद पत्ते कहे गये हैं; उस संसार रूप वृक्षको जो पुरुष मूलसहि तत्त्व से जानता है, वह वेदके तात्पर्य को जाननेवाला है । १ ।

हे अर्जुन ! उस संसार-वृक्ष की तीनों गुणरूप जल के द्वारा बढ़ी हुई एवं विषय- भोग रूप कोंपलों वाली देव, मनुष्य और तिर्यक् आदि योनि रूप शाखाएँ। नीचे और ऊपर सर्वत्र फैली हुई हैं तथा मनुष्ययोनि में 8 कर्मोक अनुसार बाँधने वाली अहंता, ममता और वासना रूप जड़ें भी नीचे और ऊपर सभी लोकों में व्याप्त हो रही हैं। २ ।

परंतु इस संसार वृक्ष का स्वरूप जैसा कहा है, वैसा यहाँ विचारकाल में नहीं पाया जाता है; क्योंकि न तो इसका आदि है। और न अन्त है तथा न अच्छी प्रकार से स्थिति ही है; इसलिये इस अहंता, ममता और वासना रूप अति दृढ़ मूलों वाले संसार रूप पीपल के वृक्ष को दृढ़ वैराग्य रूप शस्त्र-द्वारा काट कर । ३ ।

उसके उपरान्त उस परमपद रूप परमेश्वरको अच्छी प्रकार खोजना चाहिये। कि जिस में गये हुए पुरुष फिर पीछे संसार में नहीं आते हैं और जिस परमेश्वरसे यह पुरातन संसार-वृक्ष की प्रवृत्ति विस्तार को प्राप्त हुई है, उस ही आदि पुरुष नारायण के मैं शरण हूँ, इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके। ४।

नष्ट हो गया है मान और मोह जिन का तथा जीत लिया है आसक्ति रूप दोष जिन ने और परमात्मा के स्वरूप में है निरन्तर स्थिति जिनकी तथा अच्छी प्रकार से नष्ट हो गयी है कामना जिनकी, ऐसे वे सुख-दुःख नामक द्वन्द्वों से ज्ञानी जन, उस अविनाशी परमपद को प्राप्त होते हैं। ५ ।

Bhagwat Geeta 15 adhyay

उस स्वयं प्रकाशमय परमपद को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चन्द्रमा और न अग्नि ही प्रकाशित कर सकता है तथा जिस परमपद को प्राप्त होकर मनुष्य पीछे संसार में नहीं आते हैं, वही मेरा विमुक्त हुए परमधाम है * ।। हे अर्जुन ! इस देह में यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है और वही इन त्रिगुण मयी माया में स्थित हुई मनसहित पाँचों इन्द्रियों को आकर्षण करता है। ७।

कैसे कि वायु गन्ध‌ के स्थान से गन्ध को जैसे ग्रहण करके ले जाता है, वैसे ही देहादि कों का स्वामी जीवात्मा भी जिस पहले शरीर को त्यागता है, उससे इन मनसहित इन्द्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है, उसमें जाता है। ८ ।

उस शरीर में स्थित हुआ यह जीवात्मा श्रोत्र, चक्षु और त्वचा को तथा रसना, घ्राण और मन को आश्रय करके अर्थात् इन सबके सहारे से ही विषयों को सेवन करता है। ९ ।

परंतु शरीर छोड़कर जाते हुए को अथवा शरीर में स्थित हुए को और विषयों को भोगते हुएको अथवा तीनों गुणों से युक्त हुए को भी अज्ञानी जन नहीं जानते हैं, केवल ज्ञान रूप नेत्रों वाले ज्ञानी जन ही तत्त्व से जानते हैं। १० ।

क्योंकि योगीजन भी अपने हृदय में स्थित हुए इस आत्मा को यत्न करते हुए ही तत्त्व से जानते हैं और जिन्होंने अपने अन्तःकरण को शुद्ध नहीं किया है, ऐसे अज्ञानी जन तो यत्न करते भी इस आत्माको नहीं जानते हैं। ११ ।

Bhagwat Geeta 15 adhyay

हे अर्जुन ! जो तेज सूर्य में स्थित हुआ सम्पूर्ण जगत्को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चन्द्रमा में स्थित है और जो तेज अग्नि में स्थित है उसको तू मेरा ही तेज जान । १२ ।

और मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी शक्ति से सब भूतों को धारण करता हूँ और रसस्व रूप अर्थात् अमृतमय चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण ओषधियों को अर्थात् वनस्पतियों को पुष्ट करता हूँ। १३ ।

तथा मैं ही सब प्राणियों के शरीर में स्थित हुआ वैश्वानर अग्नि रूप होकर प्राण और अपान से युक्त हुआ चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ। १४ ।

और मैं ही सब प्राणियों के हृदय में अन्तर्यामीरूप से स्थित हूँ तथा मेरे से ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन में होता है और सब वेदों द्वारा मैं ही जानने के योग्य हूँ तथा वेदान्त का कर्ता और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूँ। १५।

हे अर्जुन ! इस संसार में नाशवान् और अविनाशी भी यह दो प्रकार के पुरुष हैं। उनमें सम्पूर्ण भूतप्राणियों के शरीर तो नाशवान् और जीवात्मा अविनाशी कहा जाता है। १६ ।

Bhagwat Geeta 15 adhyay

तथा उन दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही है कि जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सब का धारण-पोषण करता है एवं अविनाशी परमेश्वर और परमात्मा ऐसे कहा गया है। १७ ।

क्योंकि मैं नाशवान्, जडवर्ग क्षेत्र से तो सर्वथा अतीत और माया में स्थित अविनाशी जीवात्मा से भी उत्तम हूँ, इसलिये लोक में और वेद में भी पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूँ। १८ ।

Bhagwat Geeta 13 adhyay, or mahatmy

हे भारत ! इस प्रकार तत्त्व से जो ज्ञानी पुरुष मेरे को पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकार से निरन्तर मुझ वासुदेव परमेश्वर को ही भजता है। १९ ।

हे निष्पाप अर्जुन ! ऐसे यह अति रहस्य युक्त गोपनीय शास्त्र मेरेद्वारा कहा गया, इसको तत्त्व से जानकर मनुष्य ज्ञानवान् और कृतार्थ हो जाता है अर्थात् उसको और कुछ भी करना शेष नहीं रहता। २० ।

इति श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में “पुरुषोत्तमयोग” नामक पंद्रहवाँ अध्याय ।। १५ ।।

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