Bhagwat Geeta 14 adhyay, or mahatmy || हिन्दी व संस्कृत सहित

श्रीमद्भगवद्गीता का 14 अध्याय व माहात्म्य ।। Bhagwat Geeta 14 adhyay

 

साधकों आप सब के लिए प्रस्तुत “Bhagwat Geeta 14 adhyay” श्रीमद्भगवद्गीता चौदहवां अध्याय व माहात्म्य हिन्दी व संस्कृत मे।

Bhagwat Geeta 14 adhyay, or mahatmy || हिन्दी व संस्कृत सहित

श्रीमद्भगवद्गीताके चौदहवें अध्यायका माहात्म्य

श्रीमहादेवजी कहते हैं पार्वती! अब मैं भव-बन्धन से छुटकारा पाने के साधन भूत चौदह वें अध्याय का माहात्म्य बतलाता हूँ, तुम ध्यान देकर सुनो। सिंहलद्वीप में विक्रम बेताल नामक एक राजा थे, जो सिंह के समान पराक्रमी और कलाओं के भण्डार थे। एक दिन वे शिकार खेलने के लिये उत्सुक होकर राजकुमारों सहित दो कुतियों को साथ लिये वन में गये। वहाँ पहुँचने पर उन्होंने तीव्र गति से भागते हुए खरगोश के पीछे अपनी कुतिया छोड़ दी। उस समय सब प्राणियों के देखते-देखते खरगोश इस प्रकार भागने लगा मानो कहीं उड़ गया हो । दौड़ते-दौड़ते बहुत थक जाने के कारण वह एक बड़ी खंदक (गहरे गड़े) में गिर पड़ा। गिरने पर भी वह कुतिया के हाथ नहीं आया और उस स्थानपर जा
पहुँचा, जहाँ का वातावरण बहुत ही शान्त था।

वहाँ हरिन निर्भय होकर सब ओर वृक्षों की छाया में बैठे रहते थे। बंदर भी अपने-आप टूटकर गिरे नारियल के फलों और पके हुए आमों से पूर्ण तृप्त रहते थे। वहाँ सिंह हाथी के बच्चों के साथ खेलते और साँप निडर होकर मोर की पाँखों में घुस जाते थे। उस स्थान पर एक आश्रम के भीतर वत्स नामक मुनि रहते थे, जो जितेन्द्रिय एवं शान्त-भाव से निरन्तर गीता के चौदहवें अध्याय का पाठ किया करते थे। आश्रम के पास ही वत्समुनि के किसी शिष्य ने अपना पैर धोया था, (ये भी चौदहवें अध्याय का पाठ करने वाले थे।) उसके जल से वहाँ की मिट्टी गीली हो गयी थी। खरगोश का जीवन कुछ शेष था। वह हाँफता हुआ आकर उसी कीचड़ में गिर पड़ा। उसके स्पर्श मात्र से ही खरगोश दिव्य विमानप र बैठकर स्वर्गलोक को चला गया।

Bhagwat Geeta 14 adhyay, or mahatmy

फिर कुतिया भी उसका पीछा करती हुई आयी। वहाँ उसके शरीर में  भी कुछ कीचड़ के छींटे लग गये। फिर भूख-प्यास की पीड़ा से रहित हो कुतिया का रूप त्यागकर उसने दिव्याङ्गना का रमणीय रूप धारण कर लिया तथा गन्धर्वो से सुशोभित दिव्य विमान पर आरूढ़ हो वह भी स्वर्गलोक को चली गयी। यह देख मुनि के मेधावी शिष्य स्वकन्धर हँसने लगे। उन दोनों के पूर्वजन्म के वैर का कारण सोचकर उन्हें बड़ा विस्मय हुआ था। उस समय राजा के नेत्र भी आश्चर्य से चकित हो उठे। उन्होंने बड़ी भक्ति के साथ प्रणाम करके पूछा-‘विप्रवर ! नीच योनि में पड़े हुए दोनों प्राणी-कुतिया और खरगोश ज्ञानहीन होते हुए भी जो स्वर्ग में चले गये-इसका क्या कारण है ? इसकी कथा सुनाइये।’ शिष्यने कहा—भूपाल ! इस वन में वत्स नामक ब्राह्मण रहते हैं।

वे बड़े जितेन्द्रिय महात्मा हैं; गीता के चौदहवें अध्याय का सदा जप किया करते हैं। मैं उन्हींका शिष्य हूँ, मैंने भी ब्रह्मविद्या में विशेषज्ञता प्राप्त की । गुरुजी की ही भाँति मैं भी चौदहवें अध्याय का प्रतिदिन जप करता हूँ। मेरे पैर धोने के जल में लोटने के कारण यह खरगोश कुतियाके  साथ ही स्वर्ग लोक को प्राप्त हुआ है। अब मैं अपने हँसने का कारण बताता हूँ। महाराष्ट्र में प्रत्युदक नामक महान् नगर है, वहाँ केशव नाम का एक ब्राह्मण रहता था, जो कपटी मनुष्यों में अग्रगण्य था। उसकी स्त्री का नाम विलोभना था। वह स्वच्छन्द विहार करने वाली थी। इस से क्रोध में आकर जन्मभर के वैर को याद करके ब्राह्मण ने अपनी स्त्री का वध कर डाला और उसी पाप से उसको खरगोश की योनि में जन्म मिला। ब्राह्मणी भी अपने पाप के कारण कुतिया हुई।

श्रीमहादेवजी कहते हैं—यह सारी कथा सुनकर श्रद्धालु राजा ने गीता के चौदहवें अध्याय का पाठ आरम्भ कर दिया। इससे उन्हें परमगति की प्राप्ति हुई।

ॐ श्रीपरमात्मने नमः जा

अथ चतुर्दशोऽध्या

श्रीभगवानुवाच

यःपरं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम् । यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः । १ ।

इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः । सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च। २ ।
मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भ दधाम्यहम् । सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत । ३ ।
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः । तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता। ४ ।
सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः । निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्। ५ ।
सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् । सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ। ६ ।
रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम् । तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम्। ७ ।

श्रीभगवानुवाच

तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम् । प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत। ८ ।
सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत । ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत। ९ ।
रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत । रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा। १०।
सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते । ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत।११।
लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा । रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ । १२ ।
अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च । तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन । १३ ।
यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत् । तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते । १४ ।

श्रीभगवानुवाच

रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते । तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते। १५।
कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम्। रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम् । १६ ।
सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च । प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च । १७ ।
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः । जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः । १८।
नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति । गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्धावं सोऽधिगच्छति । १९।
गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान् । जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्रुते ।२०।

अर्जुन उवाच

कैर्लिङ्गैस्त्रीनगुणानेतानतीतो भवति प्रभो। किमाचारः कथं चैतांस्त्रीनगुणानतिवर्तते। २१ ।

श्रीभगवानुवाच

प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव । न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति । २२ ।
उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते । गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते । २३ ।
समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः । तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः । २४ ।
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः । सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते । २५ ।
मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते । स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते । २६ ।
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च । शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च । २७ ।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे
गुणत्रयविभागयोगो नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥

ॐ श्रीपरमात्मने नमः

चौदहवाँ अध्याय

उसके उपरान्त श्रीकृष्णभगवान् बोले, हे अर्जुन ! ज्ञानों में भी अति उत्तम परम ज्ञान को मैं फिर भी तेरे लिये कहूँगा कि जिस को जानकर सब मुनिजन इस संसार से मुक्त होकर परम सिद्धि को प्राप्त हो गये हैं। १ ।

हे अर्जुन ! इस ज्ञान को आश्रय करके अर्थात् धारण करके मेरे स्वरूप को प्राप्त हुए पुरुष सृष्टि के आदि में पुनः उत्पन्न नहीं होते हैं और प्रलयकाल में भी व्याकुल नहीं होते हैं; क्योंकि उनकी दृष्टि में मुझ वासुदेव से भिन्न कोई वस्तु है ही नहीं। २ ।

हे अर्जुन ! मेरी महत् ब्रह्मरूप प्रकृति अर्थात् त्रिगुणमयी माया सम्पूर्ण भूतों की योनि है अर्थात् गर्भाधान का स्थान है और मैं उस योनिमें  चेतन रूप बीज को स्थापन करता हूँ। उस जड़- चेतन के संयोग से सब भूतों की उत्पत्ति होती है ।३।

हे अर्जुन ! नाना प्रकार की सब योनियों में जितनी मूर्तियाँ अर्थात् शरीर उत्पन्न होते हैं, उन सबकी त्रिगुणमयी माया तो गर्भ को धारण करने वाली माता है और मैं बीजको स्थापन करने वाला पिता हूँ। ४ ।

हे अर्जुन ! सत्त्वगुण, रजोगुण और तमो गुण ऐसे यह प्रकृति से उत्पन्न हुए तीनों गुण इस अविनाशी जीवात्मा को शरीर में बाँधते हैं। ५ ।

हे निष्पाप ! उन तीनों गुणों में प्रकाश करने वाला, निर्विकार सत्त्वगुण तो निर्मल होने के कारण सुख की आसक्ति से और ज्ञान की आसक्ति से अर्थात् ज्ञान के अभिमान से बाँधता है।६।

Bhagwat Geeta 14 adhyay

हे अर्जुन ! रागरूप रजोगुण को कामना और आसक्ति से उत्पन्न हुआ जान, वह इस जीवात्मा को कर्मो की और उनके फल की आसक्ति से बाँधता है। ७।

और हे अर्जुन ! सर्वदेहाभिमानियों के मोहने वाले तमोगुण को अज्ञान से उत्पन्न हुआ जान, वह इस जीवात्मा को प्रमाद,* आलस्य और निद्रा के द्वारा बाँधता है। ८ ।

क्योंकि हे अर्जुन ! सत्त्वगुण सुख में लगाता है और रजोगुण कर्म में लगाता है तथा तमोगुण तो ज्ञान को आच्छादन करके अर्थात् ढक के प्रमाद में भी लगाता है।९।

और हे अर्जुन ! रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्त्वगुण होता है अर्थात् बढ़ता है तथा रजोगुण और सत्त्वगुण को दबाकर तमोगुण बढ़ता है, वैसे ही तमोगुण और सत्त्वगुण को दबाकर रजोगुण बढ़ता है। १० ।

इसलिये जिस काल में इस देह में तथा अन्तःकरण और इन्द्रियों में चेतनता और बोधशक्ति उत्पन्न होती है, उस काल में ऐसा जानना चाहिये कि सत्त्वगुण बढ़ा है। ११ ।

Bhagwat Geeta 14 adhyay

और हे अर्जुन ! रजोगुण के बढ़ने पर लोभ और प्रवृत्ति अर्थात् सांसारिक चेष्टा तथा सब प्रकार के कर्मो का स्वार्थबुद्धि से आरम्भ एवं अशान्ति अर्थात् मन की चञ्चलता और विषयभोगों की लालसा, यह उत्पन्न होते हैं। १२।

तथा हे अर्जुन ! तमोगुण के बढ़ने पर अन्तःकरण और इन्द्रियों में अप्रकाश एवं कर्तव्यकर्मो में अप्रवृत्ति और प्रमाद अर्थात् व्यर्थ चेष्टा और निद्रादि अन्तःकरण की मोहिनी वृत्तियाँ यह सब ही उत्पन्न होते हैं। १३ ।

हे अर्जुन ! जब यह जीवात्मा सत्त्वगुण की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होता है, तब तो उत्तम कर्म करनेवालों के मलरहित अर्थात् दिव्य स्वर्गादि लोकों को प्राप्त होता है। १४ ।

रजोगुण के बढ़ने पर, अर्थात् जिस काल में रजोगुण बढ़ता है उस काल में मृत्यु को प्राप्त होकर, कर्मो की आसक्ति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है तथा तमोगुण के बढ़ने पर मरा हुआ पुरुष कीट, पशु आदि मूढ़ योनियोंमें उत्पन्न होता है। १५।

क्योंकि सात्त्विक कर्म का तो सात्त्विक अर्थात् सुख, ज्ञान और वैराग्यादि निर्मल फल कहा है और राजस कर्म का फल दुःख एवं तामस कर्म का फल अज्ञान कहा है। १६ ।

सत्त्वगुण से ज्ञान उत्पन्न होता है और रजोगुण से निःसंदेह लोभ उत्पन्न होता है तथा तमोगुण से प्रमाद* और मोह । उत्पन्न होते हैं और अज्ञान भी होता है। १७ ।

Bhagwat Geeta 14 adhyay

इसलिये सत्त्वगुण में स्थित हुए पुरुष स्वर्गादि उच्च लोकों को जाते हैं और रजोगुण में स्थित राजस पुरुष मध्य में अर्थात् मनुष्यलोक में ही रहते हैं एवं तमोगुण के कार्यरूप निद्रा, प्रमाद और आलस्यादि में स्थित हुए तामस पुरुष अधोगति को अर्थात् कीट, पशु आदि नीच योनियोंको प्राप्त होते हैं। १८।

हे अर्जुन ! जिस काल में द्रष्टा अर्थात् समष्टि-चेतन में एकीभाव से स्थित हुआ साक्षी पुरुष तीनों गुणों के सिवा अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता है अर्थात् गुण ही गुणों में बर्तते हैं* ऐसा देखता है और तीनों गुणों से अति परे सच्चिदानन्दघनस्वरूप मुझ परमात्मा को तत्त्व से जानता है, उस काल में वह पुरुष मेरे स्वरूपको प्राप्त होता है। १९ ।

Bhagwat Geeta 11 adhyay, or mahatmy

तथा यह पुरुष इन स्थूल शरीर की उत्पत्ति के कारण तीनों गुणों को उल्लङ्घन करके जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और सब प्रकार के दुःखों से मुक्त हुआ परमानन्द को प्राप्त होता है। २० ।

इस प्रकार भगवान के रहस्ययुक्त वचनों को सुनकर अर्जुन ने पूछा कि हे पुरुषोत्तम ! इन तीनों गुणों से अतीत हुआ पुरुष किन-किन लक्षणों से युक्त होता है ? और किस प्रकार के आचरणों वाला होता है तथा हे प्रभो ! मनुष्य किस उपाय से इन तीनों गुणोंसे अतीत होता है ? । २१ ।

मत इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर श्रीकृष्णभगवान् बोले, हे अर्जुन ! जो पुरुष सत्त्वगुण के कार्यरूप प्रकाश को* और रजोगुण के कार्यरूप प्रवृत्ति को तथा तमोगुण के कार्य रूप मोहको भी न तो प्रवृत्त होने पर बुरा समझता है और न निवृत्त होने पर उनकी आकाङ्क्षा करता है।। २२ ।

Bhagwat Geeta 14 adhyay

तथा जो साक्षी के सदृश स्थित हुआ गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता है और गुण ही गुणों में बर्तते हैं* ऐसा समझता हुआ जो सच्चिदानन्दघन परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहता है एवं उस स्थिति से चलाय मान नहीं होता है। २३

जो निरन्तर आत्मभाव में स्थित हुआ दुःख-सुख को समान समझने वाला है तथा मिट्टी, पत्थर और सुवर्ण में समान भाव वाला और धैर्यवान् है तथा जो प्रिय और अप्रिय को बराबर समझता है और अपनी निन्दा-स्तुति में भी समान भाव वाला है। २४ ।

तथा जो मान और अपमान में सम है एवं मित्र और वैरी के पक्ष में भी सम है, वह सम्पूर्ण आरम्भों में कर्तापन के अभिमान से रहित हुआ पुरुष गुणातीत कहा जाता है। २५ ।

Bhagwat Geeta 12 adhyay, or mahatmy

और जो पुरुष अव्यभिचारी भक्तिरूप योग के द्वारा मेरे को निरन्तर भजता है, वह इन तीनों गुणों को अच्छी प्रकार उल्लङ्घन करके सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में एकीभाव होने के लिये योग्य होता है । २६ ।

हे अर्जुन ! उस अविनाशी परब्रह्म का और अमृत का तथा नित्यधर्म का और अखण्ड एकरस आनन्द का मैं ही आश्रय हूँ अर्थात् उपर्युक्त ब्रह्म, अमृत, अव्यय और शाश्वत धर्म तथा ऐकान्तिक सुख, यह सब मेरे ही नाम हैं, इसलिये इनका मैं परम आश्रय हूँ। २७।

इति श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में “गुणत्रयविभाग योग’ नामक चौदहवाँ अध्याय ॥ १४ ॥

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