Bhagwat Geeta 13 adhyay, or mahatmy

 माहात्म्य ।। Bhagwat Geeta 13 adhyay

 

साधकों आप सब के लिए प्रस्तुत है। “Bhagwat Geeta 13 adhyay”  श्रीमद्भगवद्गीता तेरहवां अध्याय व माहात्म्य हिन्दी व संस्कृत में।

Bhagwat Geeta 13 adhyay, or mahatmy

श्रीमद्भगवद्गीता के तेरहवें अध्याय का माहात्म्य

श्रीमहादेवजी कहते हैं-पार्वती ! अब तेरहवें अध्याय की अगाध महिमा का वर्णन सुनो। उस को सुनने से तुम बहुत प्रसन्न होओगी । दक्षिण दिशा में तुङ्गभद्रा नाम की एक बहुत बड़ी नदी है। उसके किनारे हरिहर पुर नामक रमणीय नगर बसा हुआ है। वहाँ हरिहर नाम से साक्षात् भगवान् शिवजी विराजमान हैं, जिनके दर्शनमात्र से परम कल्याण की प्राप्ति होती है। हरिहर पुर में हरि दीक्षित नामक एक श्रोत्रिय ब्राह्मण रहते थे, जो तपस्या और स्वाध्याय में संलग्न तथा वेदों के पारगामी विद्वान् थे।

उनके एक स्त्री थी, जिसे लोग दुराचारा कहकर पुकारते थे। इस नाम के अनुसार ही उसके कर्म भी थे। वह सदा पति को कुवाच्य कहती थी। उसने कभी भी उन के साथ शयन नहीं किया। पति से सम्बन्ध रखने वाले जितने लोग घर पर आते, उन सबको डाँट बताती और स्वयं कामोन्मत्त होकर निरन्तर व्यभिचारियों के साथ रमण किया करती थी।एक दिन नगर को इधर-उधर आते-जाते हुए पुरवासियों से भरा देख उसने निर्जन एवं दुर्गम वन में अपने लिये संकेत स्थान बना लिया। एक समय रात में किसी कामी को न पाकर वह घर के किवाड़ खोल नगर से बाहर संकेत स्थान पर चली गयी।

उस समय उसका चित्त काम से मोहित हो रहा था। वह एक-एक कुञ्ज में तथा प्रत्येक वृक्ष के नीचे जा-जाकर किसी प्रियतम की खोज करने लगी; किंतु उन सभी स्थानों पर उसका परिश्रम व्यर्थ गया। उसे प्रियतम का दर्शन नहीं हुआ। तब वह उस वन में नाना प्रकार की बातें कहकर विलाप करने लगी। चारों दिशाओं में घूम-घूम कर वियोग जनित विलाप करती हुई उस स्त्री की आवाज सुनकर कोई सोया हुआ बाघ जाग उठा और उछल कर उस स्थान पर पहुंचा, जहाँ वह रो रही थी। उधर वह भी उसे आते देख किसी प्रेमी की आशङ्का से उसके सामने खड़ी होने के लिये ओट से बाहर निकल आयी।

ॐ श्रीपरमात्मने नमः

उस समय व्याघ्र ने आकर उसे नखरूपी बाणोंके प्रहार से पृथ्वी पर गिरा दिया। इस अवस्था में भी वह कठोर वाणी में चिल्लाती हुई पूछ बैठी-‘अरे बाघ ! तू किस लिये मुझे मारने को यहाँ आया है ? पहले इन सारी बातों को बता दे, फिर मुझे मारना।’ उसकी यह बात सुनकर प्रचण्ड पराक्रमी व्याघ्र क्षणभर के लिये उसे अपना ग्रास बनाने से रुक गया और हँसता हुआ-सा बोला-‘दक्षिण देश में मलापहा नामक एक नदी है। उसके तटपर मुनिपर्णा नगरी बसी हुई है। वहाँ पञ्चलिङ्ग नाम से प्रसिद्ध साक्षात् भगवान् शङ्कर निवास करते हैं। उसी नगरी में मैं ब्राह्मणकुमार होकर रहता था।

नदी के किनारे अकेला बैठा रहता और जो यज्ञ के अधिकारी नहीं हैं, उन लोगों से भी यज्ञ करा कर उनका अन्न खाया करता था। इतना ही नहीं, धनके लोभ से मैं सदा अपने वेदपाठ के फल को भी बेचा करता था। मेरा लोभ यहाँ तक बढ़ गया था कि अन्य भिक्षुओं को गालियाँ देकर हटा देता और स्वयं दूसरों को नहीं देने योग्य धन भी बिना दिये ही हमेशा ले लिया करता था। ऋण लेने के बहाने मैं सब लोगों को छला करता था। तदनन्तर कुछ काल व्यतीत होने पर मैं बूढ़ा हुआ।

मेरे बाल सफेद हो गये, आँखों से सूझता न था और मुँह के सारे दाँत गिर गये। इतने पर भी मेरी दान लेने की आदत नहीं छूटी। पर्व आने पर प्रतिग्रह के लोभ से मैं हाथ में कुश लिये तीर्थ के समीप चला जाया करता था। तत्पश्चात् जब मेरे सारे अङ्ग शिथिल हो गये, तब एक बार मैं कुछ धूर्त ब्राह्मणों के घर पर माँगने- खाने के लिये गया। उसी समय मेरे पैर में कुत्ते ने काट लिया। तब मूर्छित होकर क्षणभर में पृथ्वी पर गिर पड़ा। मेरे प्राण निकल गये। उसके बाद मैं इसी व्याघ्रयोनि में उत्पन्न हुआ।

Bhagwat Geeta 13 adhyay, or mahatmy

तबसे इस दुर्गम वन में रहता हूँ तथा अपने पूर्व पापों को याद करके कभी धर्मिष्ठ महात्मा, यति, साधु पुरुष तथा सती स्त्रियोंको मैं नहीं खाता। पापी-दुराचारी तथा कुलटा स्त्रियों को ही मैं अपना भक्ष्य बनाता हूँ; अतः कुलटा होने के कारण तू अवश्य ही मेरा ग्रास बनेगी।’ यों कहकर वह अपने कठोर नखों से उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े करके खा गया। इसके बाद यमराज के दूत उस पापिनी को संयमनीपुरी में ले गये। वहाँ यमराज की आज्ञा से उन्होंने अनेकों बार उसे विष्ठा, मूत्र और रक्त से भरे हुए भयानक कुण्डों में गिराया। करोड़ों कल्पोंतक उसमें रखने के बाद उसे वहाँ से ले आकर सौ मन्वन्तरों तक रौरव नरक में रखा। फिर चारों ओर मुँह करके दीन भाव से रोती हुई उस पापिनी को वहाँ से खींचकर दहनानन नामक नरक में गिराया।

उस समय उसके केश खुले हुए थे और शरीर भयानक दिखायी देता था। इस प्रकार घोर नरकयातना भोग चुकने पर वह महापापिनी इस लोक में आकर चाण्डाल योनि में उत्पन्न हुई। चाण्डाल के घर में भी प्रतिदिन बढ़ती हुई वह पूर्वजन्म के अभ्यास से पूर्ववत् पापों में प्रवृत्त रही। फिर उसे कोढ़ और राजयक्ष्मा का रोग हो गया। नेत्रों में पीड़ा होने लगी। फिर कुछ काल के पश्चात् वह पुनः अपने निवास स्थान (हरिहरपुर) को गयी, जहाँ भगवान् शिव के अन्तःपुर की स्वामिनी जम्भका देवी विराजमान हैं। वहाँ उसने वासुदेव नामक एक पवित्र ब्राह्मण का दर्शन किया, जो निरन्तर गीता के तेरहवें अध्याय का पाठ करता रहता था। उसके मुख से गीता का पाठ सुनते ही वह चाण्डाल शरीर से मुक्त हो गयी और दिव्य देह धारण कर के स्वर्गलोक में चली गयी।

ॐ श्रीपरमात्मने नमः

अथ त्रयोदशोऽध्यायः

श्रीभगवानुवाच

इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते । एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः । १ ।
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत । क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम। २ ।
तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत्। स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे शृणु। ३ ।
ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक् । ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः। ४ ।
महाभूतान्यहङ्कारो बुद्धिरव्यक्तमेव च। इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः। ५ ।
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतना धृतिः । एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्। ६ ।
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्। आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः । ७ ।
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च । जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ।८ ।
असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु । नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु। ९ ।
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी । विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ।१०।
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्। एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा । ११ ।
ज्ञेय यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते। अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते । १२ ।

श्रीभगवानुवाच

सर्वतःपाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् । सर्वतःश्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति । १३ ।
सन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् । असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च । १४ ।
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च । सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् । १५।
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्। भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं प्रसिष्णु प्रभविष्णु च । १६ ।
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते । ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हदि सर्वस्य विष्ठितम्। १७ ।
इति क्षेत्र तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः । मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्धावायोपपद्यते । १८ ।
प्रकृतिं पुरुवं चैव विद्ध्यनादी उभावपि । विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान् । १९ ।
कार्यकरणकर्तृत्वे प्रकृतिरुच्यते । पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते । २० ।
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान् । कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु । २१ ।
उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः । परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः । २२ ।
य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह । सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते। २३ ।

श्रीभगवानुवाच

ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना । अन्ये साङ्ख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे । २४ ।
अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते । तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः । २५।
यावत्सञ्जायते किञ्चित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम् । क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ । २६।
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् । विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति । २७ ।
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्। न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् । २८ ।
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः । यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति । २९ ।
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति । तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा।३०।
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्माय त्मिायमव्ययः । शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते। ३१ ।
यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते। सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते। ३२।
यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः । क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत । ३३ ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा । भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम्। ३४ ।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे
क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोगो नाम त्रयोदशोऽध्यायः ।। १३ ॥

ॐ श्रीपरमात्मने नमः

तेरहवाँ अध्याय

उसके उपरान्त श्रीकृष्णभगवान् फिर बोले, हे अर्जुन ! यह शरीर क्षेत्र है ऐसे कहा जाता है और इसको जो जानता है, उसको क्षेत्रज्ञ,

ऐसा उनके तत्त्व को जानने वाले ज्ञानीजन कहते हैं। १।

और हे अर्जुन ! तू सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ अर्थात् जीवात्मा भी मेरे को ही जान और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का अर्थात् विकार सहित प्रकृति का और

पुरुष का जो तत्त्व से जानना है। वह ज्ञान है, ऐसा मेरा मत है। २ ।

इसलिये वह क्षेत्र जो है और जैसा है तथा जिन विकारों वाला है और जिस कारण से जो हुआ है तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो है और जिस

प्रभाव वाला है, वह सब संक्षेप से मेरे से सुन । ३ ।

यह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का तत्त्व ऋषियों द्वारा बहुत प्रकार से कहा गया है अर्थात् समझाया गया है और नाना प्रकार के वेदमन्त्रों से विभाग

पूर्वक कहा गया है तथा अच्छी प्रकार निश्चय किये हुए युक्ति युक्त ब्रह्मसूत्र के पदों द्वारा भी वैसे ही कहा गया है। ४ ।

हे अर्जुन ! वही मैं तेरे लिये कहता हूँ कि पाँच महाभूत अर्थात् आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी का सूक्ष्म-भाव, अहंकार, बुद्धि और

मूल प्रकृति अर्थात् त्रिगुणमयी माया भी तथा दस इन्द्रियाँ अर्थात् श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और घ्राण एवं वाक्, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा,

एक मन और पाँच इन्द्रियों के विषय अर्थात् शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध । ५।

तथा इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख और स्थूल देह का पिण्ड एवं चेतनता और धृति। इस प्रकार यह क्षेत्र विकारों के सहित* संक्षेप से कहा

गया । ६।

Bhagwat Geeta 13 adhyay

कारी हे अर्जुन ! श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव, दम्भाचरण का अभाव, प्राणिमात्र को किसी प्रकार भी न सताना और क्षमाभाव तथा

मन-वाणी की सरलता, श्रद्धा-भक्ति सहित गुरुकी सेवा, बाहर-भीतर की शुद्धिा, अन्तःकरण की स्थिरता, मन और इन्द्रियों सहित शरीर

का निग्रह । ७।

इस लोक और परलोक के सम्पूर्ण भोगों में आसक्ति का अभाव और अहंकार का भी अभाव एवं जन्म-मृत्यु-जरा और रोग आदि में

दुःख-दोषों का बारंबार विचार करना। ८।

पुत्र, स्त्री, घर और धनादि में आसक्ति का अभाव और ममता का न होना तथा प्रिय- नवर इस श्लोकोद अप्रिय की प्राप्ति में सदा ही

चित्त का सम रहना अर्थात् मन के अनुकूल तथा प्रतिकूल के प्राप्त होने पर हर्ष-शोकादि विकारों का न होना । ९ ।

मुझ परमेश्वर में एकीभाव से स्थिति रूप ध्यान योग के द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति तथा एकान्त और शुद्ध देश में रहने का स्वभाव

और विषयासक्त मनुष्यों के समुदाय में प्रेम का न होना । १० ।

तथा अध्यात्मज्ञान में नित्य स्थिति और तत्त्वज्ञान के अर्थरूप परमात्मा को सर्वत्र देखना, यह सब तो ज्ञान है और जो इससे विपरीत है,

वह अज्ञान है ऐसे कहा है। ११ ।

हे अर्जुन ! जो जानने के योग्य है तथा जिस को जानकर मनुष्य परमानन्द को प्राप्त होता है, उसको अच्छी प्रकार कहूँगा, वह आदि-

रहित, परम ब्रह्म अकथनीय होने से न सत् कहा जाता है और न असत् ही कहा जाता है। १२ ।

Bhagwat Geeta 13 adhyay

परंतु वह सब ओरसे हाथ-पैरवाला एवं सब ओर से नेत्र, सिर और मुख वाला तथा सब ओर से श्रोत्रवाला है; क्योंकि वह संसार में सबको

व्याप्त करके स्थित है । १३।

और सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों को जानने वाला है, परंतु वास्तव में सब इन्द्रियों से रहित है तथा आसक्ति रहित और गुणों से अतीत

हुआ भी अपनी योगमाया से सबको धारण-पोषण करने वाला और गुणों को भोगने वाला है। १४ ।

तथा वह परमात्मा चराचर सब भूतों के बाहर-भीतर परिपूर्ण है और चर-अचररूप भी वही है और वह सूक्ष्म होने से अविज्ञेय है* तथा

अति समीप‌ में और दूर में भी स्थित वही है। १५ ।

और वह विभाग रहित एकरूप‌ से आकाश के सदृश परिपूर्ण हुआ भी चराचर सम्पूर्ण भूतों में पृथक्-पृथक्के सदृश स्थित प्रतीत होता

है तथा वह जानने योग्य परमात्मा, विष्णु रूप से भूतों को धारण-पोषण करने वाला और रुद्र रूप से संहार करने वाला तथा ब्रह्मारूप से

सबका उत्पन्न करने वाला है। १६ ।

Bhagwat Geeta saptam adhyay , or mahatm

वह ब्रह्म ज्योतियों का भी ज्योति एवं माया से अति परे कहा जाता है तथा वह परमात्मा बोध स्वरूप और जानने के योग्य है एवं तत्त्वज्ञान

से प्राप्त होने वाला और सबके हृदय में स्थित है। १७ ।

हे अर्जुन! इस प्रकार क्षेत्र*‌ तथा ज्ञान और जानने योग्य परमात्मा का स्वरूप संक्षेप से कहा गया, इसको तत्त्व से जानकर मेरा भक्त मेरे

स्वरूप को प्राप्त होता है। १८ ।

Bhagwat Geeta 13 adhyay

म हे अर्जुन ! प्रकृति अर्थात् त्रिगुणमयी मेरी माया और जीवात्मा अर्थात् क्षेत्रज्ञ, इन दोनों को तू अनादि जान और राग-द्वेषादि‌ विकारों को

तथा त्रिगुणात्मक सम्पूर्ण पदार्थों को भी प्रकृति से ही उत्पन्न हुए जान । १९ ।

क्योंकि कार्य और करण के उत्पन्न करने में हेतु प्रकृति कही जाती है और जीवात्मा सुख-दुःखों के भोक्तापन में अर्थात् भोग ने में हेतु

कहा जाता है। २० ।

परंतु प्रकृति में* स्थित हुआ ही पुरुष प्रकृति से उत्पन्न हुए त्रिगुणात्मक सब पदार्थो को भोगता है और इन गुणों का सङ्ग ही इस जीवात्मा

के अच्छी, बुरी योनियोंमें  जन्म लेने में कारण है। । २१ ।

Bhagwat Geeta ashtam adhyay, or mahatm

वास्तव में तो यह पुरुष इस देहमें स्थित हुआ भी पर अर्थात् त्रिगुणमयी माया से सर्वथा अतीत ही है, केवल साक्षी होने से उपद्रष्टा और

यथार्थ सम्मति देने वाला होने से अनुमन्ता एवं सबको धारण करने वाला होने से भर्ता, जीवरूप से भोक्ता तथा ब्रह्मादिकों का भी स्वामी

होने से महेश्वर और शुद्ध सच्चिदानन्दघन होने से परमात्मा, ऐसा कहा गया है। २२ ।

इस प्रकार पुरुष को और गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य तत्त्व से जानता है वह सब प्रकार‌ से बर्तता हुआ भी फिर नहीं जन्मता है

अर्थात् पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होता है। २३ ।

हे अर्जुन ! उस परम पुरुष परमात्मा को कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि से ध्यान के द्वारा हृदय में देखते हैं तथा अन्य कितने

ही ज्ञानयोग के द्वारा देखते हैं और अपर कितने ही निष्काम कर्मयोग के द्वारा देखते हैं। २४ ।

Bhagwat Geeta 13 adhyay

परंतु इनसे दूसरे अर्थात् जो मन्दबुद्धि वाले पुरुष हैं, वे स्वयं इस प्रकार न जानते‌ दूसरों से अर्थात् तत्त्व के जानने वाले पुरुषों से सुनकर

ही उपासना करते हैं अर्थात् उन पुरुषों के कहने के अनुसार ही श्रद्धासहित तत्पर हुए साधन करते हैं और वे सुननेके  परायण हुए पुरुष‌

भी मृत्युरूप संसारसागर को निःसंदेह तर जाते हैं। २५ ।

हे अर्जुन! यावन्मात्र जो कुछ भी स्थावर, जङ्गम वस्तु उत्पन्न होती है, उस सम्पूर्ण को तू क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही उत्पन्न हुई जान

अर्थात् प्रकृति और पुरुष के परस्पर के सम्बन्ध से ही सम्पूर्ण जगत्की स्थिति है, वास्तव में तो सम्पूर्ण जगत् नाशवान् और क्षणभङ्गुर होने

से अनित्य है। २६ ।

Bhagwat Geeta navam adhyay, or mahatm

इस प्रकार जानकर जो पुरुष नष्ट होते हुए सब चराचर भूतों में नाश रहित परमेश्वर को समभाव‌ से स्थित देखता है, वही देखता है। २७ ।

क्योंकि वह पुरुष सबमें समभाव से स्थित हुए परमेश्वर को समान देखता हुआ अपने द्वारा आपको नष्ट नहीं करता है अर्थात् शरीर का

नाश होने से अपने आत्माका नाश नहीं मानता है, इससे वह परमगति को प्राप्त होता है। २८ ।

और जो पुरुष सम्पूर्ण कर्मों को सब प्रकार से प्रकृति से ही किये हुए देखता है अर्थात् इस बात को तत्त्व से समझ लेता है कि प्रकृति से

उत्पन्न हुए सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बर्तते हैं तथा आत्मा को अकर्ता देखता है, वही देखता है। २९ ।

Bhagwat Geeta 13 adhyay

और यह पुरुष जिस काल में भूतों के न्यारे-न्यारे भाव को एक परमात्मा के संकल्प के आधार स्थित देखता है तथा उस परमात्मा के

संकल्प से ही सम्पूर्ण भूतों का विस्तार देखता है, उस काल में सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को प्राप्त होता है। ३० ।

हे अर्जुन ! अनादि होने से और गुणातीत होने से यह अविनाशी परमात्मा, शरीर में स्थित हुआ भी वास्तव में न करता है और न लिपाय

मान होता है। ३१।

जिस प्रकार सर्वत्र व्याप्त हुआ भी आकाश सूक्ष्म होनेके कारण लिपाय मान नहीं होता है, वैसे ही सर्वत्र देह में स्थित हुआ भी आत्मा

गुणातीत होने के कारण देह के गुणों से लिपायमान नहीं होता है। ३२ ।

Bhagwat Geeta 11 adhyay, or mahatmy

हे अर्जुन ! जिस प्रकार एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार एक ही आत्मा सम्पूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित

करता है अर्थात् नित्यबोध स्वरूप एक आत्मा की ही सत्ता से सम्पूर्ण जडवर्ग प्रकाशित होता है। ३३ ।

इस प्रकार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को* तथा विकार सहित प्रकृति से छूटने के उपाय को जो पुरुष ज्ञाननेत्रों द्वारा तत्त्व से जानते हैं,

वे महात्माजन परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं। ३४ ।

इति श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुनके संवादमें “क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग’ नामक

तेरहवां अध्याय ॥ १३ ॥

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