Bhagwat Geeta ashtam adhyay, or mahatm
श्रीमद्भगवद्गीता अष्टम अध्याय व माहात्म्य ।। Bhagwat geeta ashram adhyay.
पाठकों आप सब के लिए प्रस्तुत है। ” Bhagwat Geeta ashtam adhyay ” श्रीमद्भगवद्गीता अष्टम अध्याय व माहात्म्य हिन्दी मे।
श्रीमद्भगवद्गीताके आठवें अध्याय का माहात्म्य
भगवान् शिव कहते हैं—देवि ! अब आठवें अध्याय का माहात्म्य सुनो ! उसके सुनने से तुम्हें बड़ी प्रसन्नता होगी। [ लक्ष्मी जी के पूछने पर भगवान् विष्णु ने उन्हें इस प्रकार अष्टम अध्याय का माहात्म्य बतलाया था। ] दक्षिण में आमर्दक पुर नामक एक प्रसिद्ध नगर है। वहाँ भाव शर्मा नामक एक ब्राह्मण रहता था, जिसने वेश्या को पत्नी बनाकर रखा था। वह मांस खाता, मदिरा पीता, श्रेष्ठ पुरुषों का धन चुराता,परायी स्त्रीसे
व्यभिचार करता और शिकार खेलने में दिलचस्पी रखता था। वह बड़े भयानक स्वभाव का था और मन में बड़े-बड़े हौसले रखता था। एक दिन मदिरा पीने वालों का समाज जुटा था। उसमें भावशर्माने भर पेट ताड़ी पी- खूब गले तक उसे चढ़ाया; अतः अजीर्ण से अत्यन्त पीड़ित होकर वह पापात्मा काल वश मर गया और बहुत बड़ा ताड़का वृक्ष हुआ।
उसकी घनी और ठंडी छाया का आश्रय लेकर ब्रह्म-राक्षसभाव को प्राप्त हुए कोई पति-पत्नी वहाँ रहा करते थे। उनके पूर्वजन्मकी घटना इस प्रकार है। एक कुशीबल नामक ब्राह्मण था, जो वेद-वेदाङ्ग के तत्त्वों का ज्ञाता, सम्पूर्ण शास्त्रों के अर्थ का विशेषज्ञ और सदाचारी था। उसकी स्त्री का नाम कुमति था। वह बड़े खोटे विचार की थी। वह ब्राह्मण विद्वान् होने पर भी अत्यन्त लोभ वश अपनी स्त्री के साथ प्रति दिन भैंस, काल पुरुष और घोड़े आदि बड़े दानों को ग्रहण किया करता था; परंतु दूसरे ब्राह्मणों को दान में मिली हुई कौड़ी भी नहीं देता था। वे ही दोनों पति-पत्नी कालवश मृत्यु को प्राप्त होकर ब्रह्मराक्षस हुए। वे भूख और प्यास से पीड़ित हो इस पृथ्वी पर घूमते हुए उसी ताड़ वृक्ष के पास आये और उसके मूल भाग में विश्राम करने लगे।
Bhagwat Geeta ashtam adhyay, or mahatm
इसके बाद पत्नी ने पति से पूछा-‘नाथ ! हम लोगों का यह महान् दुःख कैसे दूर होगा तथा इस ब्रह्मराक्षस-योनि से किस प्रकार हम दोनों की मुक्ति होगी?’ तब उस ब्राह्मण ने कहा-‘ब्रह्म विद्याके उपदेश, अध्यात्म तत्त्व के विचार और कर्म विधि के ज्ञान बिना किस प्रकार संकट से छुट कारा मिल सकता है। यह सुनकर पत्नी ने पूछा-‘किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम’ (पुरुषोत्तम ! वह ब्रह्म क्या है ? अध्यात्म क्या है और कर्म कौन-सा है ? ) उसकी पत्नी के इतना कहते ही जो आश्चर्य की घटना घटित हुई, उसको सुनो। उपर्युक्त वाक्य गीता के आठवें अध्याय का आधा श्लोक था। उसके श्रवण से वह वृक्ष उस समय ताड़के रूप को त्यागकर भाव शर्मा नामक ब्राह्मण हो गया । तत्काल ज्ञान होने से विशुद्ध-चित्त होकर वह पाप के चोले से मुक्त हो गया।
तथा उस आधे श्लोक के ही माहात्म्य से वे पति-पत्नी भी मुक्त हो गये। उनके मुख से दैवात् ही आठवें अध्याय का आधा श्लोक निकल पड़ा था। तदनन्तर आकाश से एक दिव्य विमान आया और वे दोनों पति-पत्नी उस विमानपर आरूढ़ होकर स्वर्गलोक को चले गये। वहाँ का यह सारा वृत्तान्त अत्यन्त आश्चर्यजनक था। उसके बाद उस बुद्धिमान् ब्राह्मण भाव शर्मा ने आदर पूर्वक उस आधे श्लोक को लिखा और देव देव जनार्दन की आराधना करने की इच्छा से वह मुक्तिदायिनी काशीपुरी में चला गया। वहाँ उस उदार बुद्धि वाले ब्राह्मण ने भारी तपस्या आरम्भ की। उसी समय क्षीरसागर की कन्या भगवती लक्ष्मी ने हाथ जोड़कर देवताओं के भी देवता जगत्पति जनार्दनसे पूछा-‘नाथ ! आप सहसा नींद त्यागकर खड़े क्यों हो गये ?’
श्रीभगवान् बोले
देवि ! काशीपुरी में भागीरथी के तटपर बुद्धिमान् ब्राह्मण भावशर्मा मेरे भक्तिरस से परिपूर्ण होकर अत्यन्त कठोर तपस्या कर रहा है। वह अपनी इन्द्रियों को वश में करके गीता के आठवें अध्याय के आधे श्लोकका जप करता है। मैं उसकी तपस्यासे बहुत संतुष्ट हूँ। बहुत देर से उसकी तपस्या के अनुरूप फल का विचार कर रहा था। प्रिये ! इस समय वह फल देने को मैं उत्कण्ठित हूँ।
पार्वतीजी ने पूछा– भगवन् ! श्रीहरि सदा प्रसन्न होने पर भी जिसके लिये चिन्तित हो उठे थे, उस भगवद्भक्त भावशर्मा ने कौन-सा फल प्राप्त किया ?
श्रीमहादेव जी बोले-देवि ! द्विजश्रेष्ठ भावशर्मा प्रसन्न हुए भगवान् विष्णु के प्रसाद को पाकर आत्यन्तिक सुख (मोक्ष) को प्राप्त हुआ तथा उसके अन्य वंशज भी, जो नरक-यातना में पड़े थे, उसी के शुद्ध कर्म से भगवद्धाम को प्राप्त हुए। पार्वती ! यह आठवें अध्याय का माहात्म्य थोड़े में ही तुम्हें बताया है। इसपर सदा विचार करते रहना चाहिये।
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
अथाष्टमोऽध्यायः
अर्जुन उवाच
कि तद्ब्रह्म किमध्यात्म किं कर्म पुरुषोत्तम । अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते। १ ।
अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन । प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः । २ ।
श्रीभगवानुवाच
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते । भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसज्ञितः। ३ ।
अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्। अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर। ४ ।
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् । यः प्रयाति स मद्धावं याति नास्त्यत्र संशयः। ५ ।
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्। तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः। ६।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च। मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ।७।
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना । परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्। ८ ।
कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः । सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्ण तमसः परस्तात्।९।
प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव। भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्। १०।
यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः । यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्य चरन्ति तत्ते पदं सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये । ११ ।
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च । मूाधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् । १२ ।
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् । यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्। १३ ।
अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः । तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः । १४ ।
मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् । नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः । १५ ।
श्रीभगवानुवाच
आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन । मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते। १६ ।
सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः । रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः । १७।
अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे । रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसञ्जके। १८।
भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते । रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे। १९ ।
परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः । यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति । २० ।
अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम् । यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम । २१ ।
पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया । यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्। २२।
यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः । प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ । २३ ।
अग्निज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्। तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः । २४ ।
धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम् । तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते । २५ ।
शुक्लकृष्णे गती ोते जगतः शाश्वते मते । एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः । २६ ।
नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन । तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन। २७ ।
वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्। अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्। २८ ।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे अक्षरब्रह्मयोगो नामाष्टमोऽध्यायः ॥ ८॥
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
आठवाँ अध्याय
इस प्रकार भगवान के वचनों को न समझकर अर्जुन बोले, हे पुरुषोत्तम ! जिसका आपने वर्णन किया वह ब्रह्म क्या है ? अध्यात्म क्या है?
कर्म क्या है और अधिभूत नामसे क्या कहा गया है ? अधिदैव नामसे क्या कहा जाता है ? । १ ।
हे मधुसूदन ! यहाँ अधियज्ञ कौन है ? और वह इस शरीर में कैसे है ? और युक्त चित्त वाले पुरुषों द्वारा अन्त समय में आप किस प्रकार
जानने में आते हो? । २ ।
Shrimad bhagwat geeta katha || श्रीमद्भगवद्गीता प्रथम अध्याय।
इस प्रकार अर्जुन के प्रश्न करने पर श्रीकृष्णभगवान् बोले, हे अर्जुन ! परम अक्षर अर्थात् जिसका कभी नाश नहीं हो, ऐसा
सच्चिदानन्दघन परमात्मा तो ब्रह्म है और अपना स्वरूप अर्थात् जीवात्मा अध्यात्म नाम से कहा जाता है तथा भूतों के भाव को उत्पन्न
करने वाला शास्त्रविहित यज्ञ, दान और होम आदि के निमित्त जो द्रव्यादिकों का त्याग है, वह कर्म नामसे कहा गया है। ३।
उत्पत्ति, विनाश धर्मवाले सब पदार्थ अधिभूत हैं औ- हिरण्यमय पुरुष* अधिदैव है और हे देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन ! इस शरीर में मैं
वासुदेव ही विष्णुरूप से अधियज्ञ हूँ। ४।
और जो पुरुष अन्तकाल में मेरे को ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मेरे साक्षात् स्वरूप को प्राप्त होता है,
इसमें कुछ भी संशय नहीं है। ५।
Bhagwat Geeta dwitiya adhyay ।। श्रीमद्भगवद्गीता महत्तव
कारण कि हे कुन्ती पुत्र अर्जुन ! यह मनुष्य अन्तकाल मे जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीरको त्यागता है, उस- उसको
ही प्राप्त होता है; परंतु सदा उस ही भावको चिन्तन करता हुआ, क्योंकि सदा जिस भाव का चिन्तन करता है, अन्तकाल में भी प्रायः
उसीका स्मरण होता है । ६।
Bhagwat Geeta ashtam adhyay
इसलिये हे अर्जुन ! तू सब समय में निरन्तर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर, इस प्रकार मेरे में अर्पण किये हुए मन, बुद्धि से युक्त
हुआ, निःसन्देह मेरे को ही प्राप्त होगा। ७।
हे पार्थ ! यह नियम है कि परमेश्वर के ध्यान के अभ्यासरूप योग से युक्त, अन्य तरफ न जाने वाले चित्त से निरन्तर चिन्तन करता हुआ
पुरुष परम प्रकाश रूप, दिव्य पुरुष को अर्थात् परमेश्वर को ही प्राप्त होता है। ८।
Bhagwat Geeta third adhayay ।। mahatmy
इससे जो पुरुष सर्वज्ञ, अनादि, सबके नियन्ता*, सूक्ष्मसे भी अति सूक्ष्म, सब के धारण-पोषण करने वाले अचिन्त्यस्वरूप, सूर्य के सदृश,
नित्य चेतन प्रकाशरूप, अविद्यासे अतिपरे, शुद्ध सच्चिदानन्दघन परमात्मा को स्मरण करता है। ९ ।
वह भक्तियुक्त पुरुष अन्तकाल में भी योगबल से भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापन करके फिर निश्चल मन से स्मरण
करता हुआ उस दिव्यस्व रूप परमपुरुष परमात्मा को ही प्राप्त होता है। १० ।
आठवाँ अध्याय
हे अर्जुन वेद के जानने वाले विद्वान् जिस सच्चिदानन्दघनरूप परम पद को ओंकार नाम से कहते हैं और आसक्ति रहित यत्नशील
महात्माजन जिसमें प्रवेश करते हैं तथा जिस परम पदक चाहने वाले ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं, उस परमपद को तेरे लिये संक्षेप
से कहूँगा। ११ ।
Bhagwat geeta chautha adhyay, in hindi
हे अर्जुन ! सब इन्द्रियों के द्वारों को रोक कर अर्थात् इन्द्रियों को विषयों से हटा कर तथा मन को हृदय में स्थिर कर के और अपने
प्राण को मस्तक में स्थापन करके योगधारणा में स्थित हुआ। १२ ।
जो पुरुष, ॐ ऐसे इस एक अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उस के अर्थस्वरूप मेरे को चिन्तन करता हुआ शरीर को
त्यागकर जाता है, वह पुरुष परमगतिको प्राप्त होता है। १३ ।
Bhagwat Geeta ashtam adhyay
हे अर्जुन ! जो पुरुष मेरे में अनन्यचित्त से स्थित हुआ, सदा ही निरन्तर मेरे को स्मरण करता है, उस निरन्तर मेरे में युक्त हुए योगी
के लिये मैं सुलभ हूँ अर्थात् सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ। १४ ।
वे परम सिद्धि को प्राप्त हुए महात्माजन मेर को प्राप्त होकर दुःख के स्थानरूप क्षणभङ्गुर पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होते हैं। १५।
क्योंकि हे अर्जुन ! ब्रह्मलोक से लेकर सब लोक पुनरावर्ती स्वभाव वाले अर्थात् जिनको प्राप्त होकर पीछा संसार में आना पड़े ऐसे हैं,
परंतु हे कुन्तीपुत्र ! मेरे को प्राप्त होकर उसका पुनर्जन्म नहीं होता है; क्योंकि मैं कालातीत हूँ और यह सब ब्रह्मादिकों के लोक काल
करके अवधि वाले होने से अनित्य हैं। १६ ।
हे अर्जुन ! ब्रह्मा का जो एक दिन है, उसको हजार चौकड़ी युग तक अवधि वाला और रात्रि को भी हजार चौकड़ी युगतक अवधिवाली
जो पुरुष तत्त्व से जानते हैं, अर्थात् काल करके अवधि वाला होनेसे ब्रह्मलोक को भी अनित्य जानते हैं, वे योगीजन काल के तत्त्व को
जानने वाले हैं। १७ ।
आठवाँ अध्याय
इसलिये वे यह भी जानते हैं कि सम्पूर्ण दृश्य मात्र भूतगण ब्रह्मा के दिन के प्रवेश काल में अव्यक्त से अर्थात् ब्रह्माके सूक्ष्म शरीर से उत्पन्न
होते हैं और ब्रह्मा की रात्रि के प्रवेश काल में उस अव्यक्त नामक ब्रह्मा के सूक्ष्म शरीर में ही लय होते हैं। १८ ।
वह ही यह भूत समुदाय उत्पन्न हो-होकर, प्रकृति के वश में हुआ रात्रि के प्रवेश काल में लय होता है और दिन के प्रवेश काल में फिर
उत्पन्न होता है, हे अर्जुन ! इस प्रकार ब्रह्मा के एक सौ वर्ष पूर्ण होने से अपने लोक सहित ब्रह्मा भी शान्त हो जाता है । १९ ।
परंतु उस अव्यक्त से भी अति परे दूसरा अर्थात् विलक्षण जो सनातन अव्यक्त भाव है, वह सच्चिदानन्दघन पूर्णब्रह्म परमात्मा, सब
भूतों के नष्ट होने पर भी नहीं नष्ट होता है। २० ।
जो वह अव्यक्त, अक्षर ऐसे कहा गया है, उस ही अक्षर नामक अव्यक्तभाव को परमगति कहते हैं तथा जिस सनातन अव्यक्तभाव को
प्राप्त होकर मनुष्य पीछे नहीं आते हैं, वह मेरा परम धाम है। २१ ।
Bhagwat Geeta ashtam adhyay
और हे पार्थ ! जिस परमात्मा के अन्तर्गत सर्वभूत हैं और जिस सच्चिदानन्दघन परमात्मा से यह सब जगत् परिपूर्ण है* वह सनातन
अव्यक्त परमपुरुष अनन्य भक्ति से ।प्राप्त होने योग्य है। २२।
और हे अर्जुन ! जिस काल में शरीर त्यागकर गये योगीजन पीछा न आने वाली गति को और पीछा आने वाली गति को भी प्राप्त होते हैं,
उस काल को अर्थात् मार्ग को कहूँगा। २३ ।
Bhagwat Geeta panchwa adhyay, or mahatm
उन दो प्रकार के मागों में से जिस मार्ग में ज्योतिर्मय अग्नि अभिमानी देवता है और दिन का अभिमानी देवता है तथा शुक्लपक्ष का
अभिमानी देवता है और उत्तरायणके छः महीनों का अभिमानी देवता है, उस मार्ग में मरकर गये हुए ब्रह्मवेत्ता अर्थात् परमेश्वर की
उपासना से परमेश्वर को परोक्ष भावसे जानने वाले योगीजन उपरोक्त देवताओं द्वारा क्रमसे ले गये हुए ब्रह्म को प्राप्त हुए हैं। २४ ।
जिस मार्ग में धूमाभिमानी देवता है और रात्रि अभिमानी देवता है तथा कृष्णपक्ष का अभिमानी देवता है और दक्षिणायन के छः महीनों
का अभिमानी देवता है, उस मार्ग में मर कर गया हुआ सकाम कर्मयोगी उपरोक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले गया हुआ चन्द्रमा की
ज्योति को प्राप्त होकर स्वर्ग में अपने शुभ कर्मोंका फल भोग कर पीछा आता है। २५ ।
Bhagwat Geeta ashtam adhyay
क्योंकि जगत्के यह दो प्रकार के शुक्ल और कृष्ण अर्थात् देवयान और पितृयान मार्ग सनातन माने गये हैं, इन में एक के द्वारा गया हुआ
पीछा न आने वाली परमगति को प्राप्त होता है और दूसरे द्वारा गया हुआ पीछा आता है अर्थात् जन्म-मृत्युको प्राप्त होता है। २६ ।
हे पार्थ ! इस प्रकार इन दोनों मार्गों को तत्त्व से जानता हुआ कोई भी योगी मोहित नहीं होता है अर्थात् फिर वह निष्काम भावसे ही
साधन करता है, कामनाओं में नहीं फँसता, इस कारण हे अर्जुन ! तू सब काल में समत्वबुद्धिरूप योग से युक्त हो अर्थात् निरन्तर मेरी
प्राप्ति के लिये साधन करनेवाला हो । २७।
Bhagwat Geeta chhata adhyay , or mahatm.
क्योंकि योगी पुरुष इस रहस्य को तत्त्व से जानकर वेदों के पढ़ने में तथा यज्ञ, तप और दानादिकों के करने में जो पुण्यफल कहा है,
उस सब को निःसन्देह उल्लङ्घन कर जाता है और सनातन परम पदको प्राप्त होता है। २८।
इति श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुनके संवादमें “अक्षरब्रह्मयोग” नामक आठवाँ अध्याय ॥ ८॥
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