Bhagwat Geeta 11 adhyay, or mahatmy

श्रीमद्भगवद्गीता 11 अध्याय व माहात्म्य ।। Bhagwat Geeta 11 adhyay

 

पाठकों आप सब के लिए प्रस्तुत है। “Bhagwat Geeta 11 adhyay”  श्रीमद्भगवद्गीता का 11 अध्याय व माहात्म्य हिन्दी व संस्कृत सहित।

Bhagwat Geeta 11 adhyay, or mahatmy

श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य

श्रीमहादेवजी कहते हैं-प्रिये ! गीता के वर्णन से सम्बन्ध रखने वाली कथा एवं विश्वरूप अध्याय के पावन माहात्म्य को श्रवण करो। विशाल नेत्रों-वाली पार्वती ! इस अध्याय के माहात्म्य का पूरा-पूरा वर्णन नहीं किया जा सकता। इसके सम्बन्ध में सहस्रों कथाएँ हैं। उनमें से एक यहाँ कही जाती है। प्रणीता नदी के तटपर मेघङ्कर नामसे विख्यात एक बहुत बड़ा नगर है। उसके प्राकार (Bhagwat Geeta 11 adhyay, or

चहारदिवारी) और गोपुर (द्वार) बहुत ऊँचे हैं। वहाँ बड़ी-बड़ी विश्रामशालाएँ हैं, जिनमें सोने के खंभे शोभा दे रहे हैं। उस नगर में श्रीमान्, सुखी, शान्त, सदाचारी तथा जितेन्द्रिय मनुष्यों का निवास है। वहाँ हाथमें शाङ्ग नामक धनुष धारण करने वाले जगदीश्वर भगवान् विष्णु विराजमान हैं। वे परब्रह्मके साकार स्वरूप हैं, संसार के नेत्रों को जीवन प्रदान करने वाले हैं। उनका गौरवपूर्ण श्रीविग्रह भगवती लक्ष्मी के नेत्र-कमलों द्वारा पूजित होता है।

भगवान की वह झाँकी वामन-अवतार की है। मेघ के समान उनका श्यामवर्ण तथा कोमल आकृति है। वक्षःस्थलपर श्रीवत्सका चिह्न शोभा पाता है। वेकमल और वनमाला से विभूषित हैं। अनेक प्रकार के आभूषणों से सुशोभित हो भगवान् वामन रत्नयुक्त समुद्र के सदृश जान पड़ते हैं। पीताम्बर से उनके श्याम विग्रह की कान्ति ऐसी प्रतीत होती है, मानो चमकती हुई बिजली से घिरा हुआ स्निग्ध मेघ शोभा पा रहा हो। उन भगवान् वामनका दर्शन करके जीव जन्म एवं संसार के बन्धन से मुक्त हो जाता है। उस नगर में मेखला नामक महान् तीर्थ है, जिसमें स्नान करके मनुष्य शाश्वत वैकुण्ठधाम को प्राप्त होता है। वहाँ जगत्के स्वामी करुणा सागर भगवान् नृसिंहका दर्शन करने से मनुष्य सात जन्मों के किये हुए घोर पाप से छुटकारा पा जाता है। जो मनुष्य मेखला में गणेशजी का दर्शन करता है, वह सदा दुस्तर विघ्नों के भी पार हो जाता है।

Bhagwat Geeta 11 adhyay, or mahatmy

उसी मेघङ्कर नगर में कोई श्रेष्ठ ब्राह्मण थे, जो ब्रह्मचर्य परायण, ममता और अहंकार से रहित, वेद-शास्त्रोंमें प्रवीण, जितेन्द्रिय तथा भगवान् वासुदेव के शरणागत थे। उनका नाम सुनन्द था। प्रिये ! वे शार्ङ्गधनुष धारण करने वाले भगवान्के पास गीता के ग्यारहवें अध्याय- विश्वरूपदर्शन योग का पाठ किया करते थे। उस अध्यायके प्रभाव से उन्हें ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हो गयी थी। परमानन्द-संदोह से पूर्ण उत्तम ज्ञानमयी समाधि के द्वारा इन्द्रियों के अन्तर्मुख हो जाने के कारण वे निश्चल स्थिति को प्राप्त हो गये थे और सदा जीवन्मुक्त योगी की स्थिति में रहते थे। एक समय जब बृहस्पति सिंह राशि पर स्थित थे, महायोगी सुनन्द ने गोदावरीतीर्थ की यात्रा आरम्भ की। वे क्रमशः विरजतीर्थ, तारातीर्थ, कपिलासंगम, अष्टतीर्थ, कपिलाद्वार, नृसिंहवन, अम्बिकापुरी तथा करस्थान पुर आदि क्षेत्रों में स्नान और दर्शन करते हुए विवाह मण्डप नामक नगर में आये ।

वहाँ उन्होंने प्रत्येक घरमें जाकर अपने ठहरने के लिये स्थान माँगा, परंतु कहीं भी उन्हें स्थान नहीं मिला। अन्त में गाँव के मुखियाने उन्हें
एक बहुत बड़ी धर्मशाला दिखा दी। ब्राह्मण ने साथियों सहित उसके भीतर जाकर रात में निवास किया। सबेरा होने पर उन्होंने अपनेको तो धर्मशाला के बाहर पाया, किंतु उनके और साथी नहीं दिखायी दिये। वे उन्हें खोजने के लिये चले, इतने में ही ग्रामपाल (मुखिये) से उनकी भेंट हो गयी। ग्रामपाल ने कहा-‘मुनिश्रेष्ठ ! तुम सब प्रकार से दीर्घायु जान पड़ते हो । सौभाग्यशाली तथा पुण्यवान् पुरुषों में तुम सबसे पवित्र हो। तुम्हारे भीतर कोई लोकोत्तर प्रभाव विद्यमान है। तुम्हारे साथी कहाँ गये? और कैसे इस भवन से बाहर हुए ? इसका पता लगाओ। मैं तुम्हारे सामने इतना ही कहता हूँ कि तुम्हारे-जैसा तपस्वी मुझे दूसरा कोई नहीं दिखायी देता।

Bhagwat Geeta 11 adhyay, or mahatmy

विप्रवर ! तुम्हें किस महामन्त्र का ज्ञान है ? किस विद्या का आश्रय लेते हो तथा किस देवता की दया से तुम्हें अलौकिक शक्ति आ गयी है ? भगवन् ! कृपा करके इस गाँवमें रहो । मैं तुम्हारी सब सेवा-शुश्रूषा करूँगा।’ यों कहकर ग्रामपाल ने मुनीश्वर सुनन्द को अपने गाँव में ठहरा लिया। वह दिन-रात बड़ी भक्ति से उनकी सेवा-टहल करने लगा। जब सात-आठ दिन बीत गये, तब एक दिन प्रातःकाल आकर वह बहुत दुःखी हो महात्मा के सामने रोने लगा और बोला-‘हाय ! आज रात में राक्षस ने मुझ भाग्यहीन के बेटे को चबा लिया है। मेरा पुत्र बड़ा ही गुणवान् और भक्तिमान् था।’ ग्रामपाल के इस प्रकार कहने पर योगी सुनन्द ने पूछा-‘कहाँ है वह राक्षस ? और किस प्रकार उसने तुम्हारे पुत्र का भक्षण किया है?’ ग्रामपाल बोला-ब्रह्मन् ! इस नगर में एक बड़ा भयंकर नरभक्षी राक्षस रहता है।

वह प्रतिदिन आकर इस नगर के मनुष्यों को खा लिया करता था। तब एक दिन समस्त नगरवासियों ने मिलकर उससे प्रार्थना की- ‘राक्षस ! तुम हम सब लोगों की रक्षा करो। हम तुम्हारे लिये भोजन की व्यवस्था किये देते हैं। यहाँ बाहर के जो पथिक रात में आकर नींद लेने लगें, उनको खा जाना।’ इस प्रकार नागरिक मनुष्यों ने गाँव के (मुझ) मुखिया द्वारा इस धर्मशाला में भेजे हुए पथिकों को ही राक्षस का आहार निश्चित किया। अपने प्राणों की रक्षा के लिये ही उन्हें ऐसा करना पड़ा। तुम भी अन्य राहगीरों के साथ इस घर में आकर सोये थे; किंतु राक्षस ने उन सबों को तो खा लिया, केवल तुम्हें छोड़ दिया है। द्विजोत्तम ! तुममें ऐसा क्या प्रभाव है, इस बात को तुम्हीं जानते हो । इस समय मेरे पुत्र का एक मित्र आया था, किंतु मैं उसे पहचान न सका।

Bhagwat Geeta 11 adhyay, or mahatmy

वह मेरे पुत्र को बहुत ही प्रिय था, किंतु अन्य राहगीरों के साथ उसे भी मैंने उसी धर्मशाला में भेज दिया। मेरे पुत्र ने जब सुना कि मेरा मित्र भी उसमें प्रवेश कर गया है, तब वह उसे वहाँ से ले आने के लिये गया; परंतु राक्षस ने उसे भी खा लिया। आज सबेरे मैंने बहुत दुःखी होकर उस पिशाच से पूछा-‘ओ दुष्टात्मन् ! तूने रातमें मेरे पुत्रको भी खा लिया। तुम्हारे पेटमें पड़ा हुआ मेरा पुत्र जिससे जीवित हो सके, ऐसा कोई उपाय यदि हो तो बता।’ राक्षस ने कहा-ग्रामपाल ! धर्मशाला के भीतर घुसे हुए तुम्हारे पुत्रके न जानने के कारण मैंने भक्षण किया है। अन्य पथिकों के साथ तुम्हारा पुत्र भी अनजान में ही मेरा ग्रास बन गया है। वह मेरे उदर में जिस प्रकार जीवित और रक्षित रह सकता है, वह उपाय स्वयं विधाताने ही कर दिया है।

जो ब्राह्मण सदा गीता के ग्यारहवें अध्याय का पाठ करता हो, उसके प्रभाव से मेरी मुक्ति होगी और मरे हुओं को पुनः जीवन प्राप्त होगा । यहाँ कोई ब्राह्मण रहते हैं, जिनको मैंने एक दिन धर्मशाले से बाहर कर दिया था। वे निरन्तर गीता के ग्यारहवें अध्याय का जप किया करते हैं। अध्याय के मन्त्र से बार अभिमन्त्रित करके यदि वे मेरे ऊपर जल का छींटा दें तो निस्संदेह मेरा शाप से उद्धार हो जायगा । इस प्रकार उस राक्षस का संदेश पाकर मैं तुम्हारे निकट आया हूँ। ब्राह्मण ने पूछा-ग्रामपाल ! जो रात में सोये हुए मनुष्यों को खाता है, वह प्राणी किस पाप से राक्षस हुआ है ? ग्रामपाल बोला-ब्रह्मन् ! पहले इस गाँव में कोई किसान ब्राह्मण रहता था। एक दिन वह अगहनी के खेत की क्यारियों की रक्षा करने में लगा था ।

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वहाँ से थोड़ी ही दूर पर एक बहुत बड़ा गिद्ध किसी राही को मारकर खा रहा था। उसी समय एक तपस्वी कहीं से आ निकले, जो उस राही को बचाने के लिये दूर से ही दया दिखाते आ रहे थे। गिद्ध उस राही को खाकर आकाश में उड़ गया। तब तपस्वी ने कुपित होकर उस किसान से कहा-‘ओ दुष्ट हलवाहे ! तुझे धिक्कार है। तू बड़ा ही कठोर और निर्दयी है। दूसरे की रक्षा से मुँह मोड़कर केवल पेट पालने के धंधे में लगा है। तेरा जीवन नष्टप्राय है। अरे ! जो चोर, दाढ़वाले जीव, सर्प, शत्रु, अग्नि, विष, जल, गीध, राक्षस, भूत तथा बेताल आदि के द्वारा घायल हुए मनुष्यों की शक्ति होते हुए भी उपेक्षा करता है, वह उनके वध का फल पाता है।

जो शक्तिशाली होकर भी चोर आदि के चंगुल में फँसे हुए ब्राह्मण को छुड़ाने की चेष्टा नहीं करता, वह घोर नरक में पड़ता और पुनः भेड़िये की योनि में जन्म लेता है। जो वन में मारे जाते हुए तथा गृध्र और व्याघ्र की दृष्टि में पड़े हुए जीव की रक्षा के लिये ‘छोड़ो, छोड़ो’ की पुकार करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है। जो मनुष्य गौओं की रक्षा के लिये व्याघ्र, भील तथा दुष्ट राजाओं के हाथ से मारे जाते हैं, वे भगवान् विष्णु के उस परम पद को पाते हैं जो योगियों के लिये भी दुर्लभ है। सहस्र अश्वमेध और सौ वाजपेय यज्ञ मिलकर शरणागत-रक्षा की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं हो सकते ।  दीन तथा भयभीत जीव की उपेक्षा करने से पुण्यवान् पुरुष भी समय आने पर कुम्भी पाक नामक नरक में पकाया जाता है,

Bhagwat Geeta 11 adhyay, or mahatmy

तूने दुष्ट गिद्ध के द्वारा खाये जाते हुए राही को देखकर उसे बचाने में समर्थ होते हुए भी जो इसकी रक्षा नहीं की, इससे तू निर्दयी जान पड़ता है, अतः तू राक्षस हो जा।’ हलवाहा बोला—महात्मन् ! मैं यहाँ उपस्थित अवश्य था, किंतु मेरे नेत्र बहत देरसे खेत की रक्षा में लगे थे, अतः पास होने पर भी गिद्ध के द्वारा मारे जाते हुए इस मनुष्य को मैं नहीं जान सका। अतः मुझ दीन पर आपको अनुग्रह करना चाहिये। तपस्वी ब्राह्मण ने कहा—जो प्रतिदिन गीता के ग्यारहवें अध्यायका जप करता है, उस मनुष्य के द्वारा अभिमन्त्रित जल जब तुम्हारे मस्तक पर पड़ेगा, उस समय तुम्हें शाप से छुटकारा मिल जायगा। यह कहकर तपस्वी ब्राह्मण चले गये और वह हलवाहा राक्षस गया; अतः द्विजश्रेष्ठ ! तुम चलो और ग्यारहवें अध्याय से तीर्थ के जल को अभिमन्त्रित करो।

फिर अपने ही हाथ से उस राक्षस के मस्तक पर उसे छिड़क दो। ग्रामपाल की यह सारी प्रार्थना सुनकर ब्राह्मण का हृदय करुणा से भर आया। वे ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसके साथ राक्षस के निकट गये। वे ब्राह्मण योगी थे। उन्होंने विश्वरूप दर्शन नामक ग्यारहवें अध्याय से जल अभिमन्त्रित करके उस राक्षस के मस्तक पर डाला। गीता के ग्यारहवें अध्याय के प्रभावसे वह शापसे मुक्त हो गया। उसने राक्षस-देह का परित्याग करके चतुर्भुज रूप धारण कर लिया तथा उसने जिन सहस्रों पथिकों का भक्षण किया था, वे भी शङ्ख, चक्र एवं गदा धारण किये चतुर्भुज रूप हो गये। तत्पश्चात् वे सभी विमानपर आरूढ़ हुए। इतने में ही ग्रामपाल ने राक्षस से कहा-‘निशाचर ! मेरा पुत्र कौन है ? उसे दिखाओ।’

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उसके यों कहने पर दिव्य बुद्धि वाले राक्षस ने कहा-‘ये जो तमाल के समान श्याम, चार भुजाधारी, माणिक्यमय मुकुट से सुशोभित तथा दिव्य मणियों के बने हुए कुण्डलों से अलंकृत हैं, हार पहनने के कारण जिनके कंधे मनोहर प्रतीत होते हैं, जो सोने के भुजबंदो से विभूषित, कमल के समान नेत्र वाले, स्निग्ध रूप तथा हाथ में कमल लिये हुए हैं और दिव्य विमान पर बैठकर देवत्व को प्राप्त हो चुके हैं, इन्हीं को अपना पुत्र समझो।’ यह सुनकर ग्राम पालने उसी रूप में अपने पुत्र को देखा और उसे अपने घर ले जाना चाहा । यह देख उसका पुत्र हँस पड़ा और इस प्रकार कहने लगा। पुत्र बोला-ग्रामपाल ! कई बार तुम भी मेरे पुत्र हो चुके हो।

पहले मैं तुम्हारा पुत्र था, किंतु अब देवता हो गया हूँ। इन ब्राह्मण-देवता के प्रसाद से वैकुण्ठधाम को जाऊँगा । देखो, यह निशाचर भी चतुर्भुज रूप को प्राप्त हो गया। ग्यारहवें अध्याय के माहात्म्य से यह सब लोगों के साथ श्रीविष्णुधाम को जा रहा है; अतः तुम भी इन ब्राह्मणदेव से गीता के ग्यारहवें अध्याय का अध्ययन करो और निरन्तर उसका जप करते रहो। इसमें संदेह नहीं कि तुम्हारी भी ऐसी ही उत्तम गति होगी। तात !
मनुष्यों के लिये साधु पुरुषों का सङ्ग सर्वथा दुर्लभ है। वह भी इस समय तुम्हें प्राप्त है; अतः अपना अभीष्ट सिद्ध करो। धन, भोग, दान, यज्ञ, तपस्या और पूर्वकर्मों से क्या लेना है। विश्वरूपाध्याय के पाठ से ही परम कल्याण की प्राप्ति हो जाती है।

Bhagwat Geeta 11 adhyay, or mahatmy

पूर्णानन्दसंदोह स्वरूप श्रीकृष्ण नामक ब्रह्म के मुख से कुरुक्षेत्र में अपने मित्र अर्जुन के प्रति जो अमृतमय उपदेश निकला था,  वही श्रीविष्णुका परम तात्त्विक रूप है। तुम उसी का चिन्तन करो। वह मोक्ष के लिये प्रसिद्ध रसायन है। संसार-भय से डरे हुए मनुष्यों की आधि-व्याधिका विनाशक तथा अनेक जन्मके दुःखों का नाश करने वाला है। मैं उसके सिवा दूसरे किसी साधन को ऐसा नहीं देखता, अतः उसी का अभ्यास करो।

श्रीमहादेवजी कहते है—यों कहकर वह सबके साथ श्रीविष्णु के परमधाम को चला गया । तब ग्रामपालने ब्राह्मण के मुख से उस अध्याय को पढ़ा । फिर वे दोनों ही उसके माहात्म्य से विष्णुधाम को चले गये । पार्वती ! इस प्रकार तुम्हें ग्यारहवें अध्याय की माहात्म्य-कथा
सुनायी है । इसके श्रवणमात्र से महान् पातकों का नाश हो जाता है।

ॐ श्रीपरमात्मने नमः

अथैकादशोऽध्यायः

अर्जुन उवाच

मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसज्ञितम्। यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम।१।
भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया । त्वत्तः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम्। २ ।
एवमेतद्यथास्थ त्वमात्मानं परमेश्वर । द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम। ३ ।
मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो । योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम्। ४ ।
श्रीभगवानुवाच पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः । नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च। ५ ।
पश्यादित्यान्वसून्रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा । बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत। ६ ।
इहैकस्थं जगत्कृत्स्त्रं पश्याद्य सचराचरम्। मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्रुष्टुमिच्छसि। ७ ।
न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा । दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्। ८ ।

सञ्जय उवाच

एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरिः । दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम्। ९ ।
अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम् । अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम् । १०।

दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम्। सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम्। ११ ।
दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेयुगपदुस्थिता । यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः । १२ ।
तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा । अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा । १३।
ततः स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनञ्जयः। प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत । १४।

अर्जुन उवाच

पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसङ्घान् । ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थमृषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान्। १५ ।
अनेकबाहूदरवकत्रनेत्रं पश्यामि त्वा सर्वतोऽनन्तरूपम्। नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप। १६ ।
किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम्। पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ताद्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम् । १७ ।
त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्। त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे। १८।
अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यमनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्। पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रं स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम् । १९ ।

द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः। दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन्। २०।
अमी हि त्वां सुरसङ्घा विशन्ति केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति। स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसङ्घाः स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः । २१ ।
रुद्रादित्या वसवो ये च साध्या विश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च। गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसङ्घा वीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे । २२ ।
रूपं महत्ते बहुवकत्रनेत्रं महाबाहो बहुबाहूरुपादम्। बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालं दृष्ट्वा लोकाः प्रव्यथितास्तथाहम्। २३ ।

अर्जुन उवाच

नभःस्पृशं दीप्तमनेकवर्ण व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम्। दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा धृति न विन्दामि शमं च विष्णो । २४ ।
दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि । दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास। २५।
अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः सर्वे सहैवावनिपालसङ्घः। भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथासौ सहास्मदीयैरपि योधमुख्यैः । २६ ।
वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति दंष्ट्राकरालानि भयानकानि  केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु सन्दृश्यन्ते चूर्णितैरुत्तमाङ्गैः । २७।

यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति । तथा तवामी नरलोकवीरा विशन्ति वकााण्यभिविज्वलन्ति । २८॥
यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतङ्गा विशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः। तथैव नाशाय विशन्ति लोकास्तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगाः । २९ ।
लेलिह्यसे प्रसमानः समन्ताल्लोकान्समग्रान्वदनैवलद्भिः । तेजोभिरापूर्य जगत्सम भासस्तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो। ३०।
आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद । विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यं न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम्। ३१ ।

श्रीभगवानुवाच

कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान् समाहर्तुमिह प्रवृत्तः। ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः । ३२ ।
तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुक्ष्व राज्यं मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्। ३३ ।
द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च कर्णं तथान्यानपि योधवीरान्। मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान् । ३४।

सञ्जय उवाच

एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य कृताञ्जलिर्वेपमानः किरीटी ।
नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं सगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य । ३५।

अर्जुन उवाच

स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च। रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्घाः । ३६।
कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकरें। अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्पर यत्। ३७।
त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणस्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्। वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप । ३८।
वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च । नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते । ३९ ।
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व । अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः। ४०।
सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति । अजानता महिमानं तवेदं मया प्रमादात्प्रणयेन वापि। ४१ ।

यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु। एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम्। ४२।
पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्। न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव । ४३ ।
तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कार्य प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम्। पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम्। ४४ ।
अदृष्टपूर्वं हषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे। तदेव मे दर्शय देवरूपं प्रसीद देवेश जगन्निवास । ४५ ।
किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तमिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव। तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते। ४६।

श्रीभगवानुवाच

मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं परं दर्शितमात्मयोगात्। तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यं यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम्। ४७ ।
न वेदयज्ञाध्ययनैन दानैर्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुप्रैः । एवंरूपः शक्य अहं नृलोके द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर । ४८ ।

मा ते व्यथा मा च विमूढभावो दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम्। व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वं तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य । ४९ ।

सञ्जय उवाच

आश्वासयामास माण इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः । च भीतमेनं भूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा । ५०।

अर्जुन उवाच

दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन । इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृतिं गतः । ५१ ।

श्रीभगवानुवाच

सुदुर्दशमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम । देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाशिणः । ५२ ।
नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया । शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा । ५३ ।
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन । ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप । ५४ ।
मत्कर्मकृन्यत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः । निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव । ५५।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे
विश्वरूपदर्शनयोगो नामैकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥

Shrimad bhagwat geeta katha || श्रीमद्भगवद्गीता प्रथम अध्याय।

ॐ श्रीपरमात्मने नमः

ग्यारहवाँ अध्याय

इस प्रकार भगवानके वचन सुनकर अर्जुन बोले-हे भगवन् ! मेरे पर अनुग्रह करनेके लिये परम गोपनीय, अध्यात्म विषयक वचन

अर्थात् उपदेश आपके द्वारा जो कहा गया, उससे मेरा यह अज्ञान नष्ट हो गया है। १।

क्योंकि हे कमलनेत्र ! मैंने भूतों की उत्पत्ति और प्रलय आप से विस्तारपूर्वक सुने हैं तथा आपका अविनाशी प्रभाव भी सुना है। २ ।

हे परमेश्वर ! आप अपने को जैसा कहते हो यह ठीक ऐसा ही है; परंतु हे पुरुषोत्तम ! आपके ज्ञान, ऐश्वर्य, शक्ति, बल, वीर्य और

तेजयुक्त रूपको प्रत्यक्ष देखना चाहता हूँ। ३ ।

इसलिये हे प्रभो ! * मेरे द्वारा वह आपका रूप देखा जाना शक्य है ऐसा यदि मानते हैं, तो हे योगेश्वर ! आप अपने अविनाशी स्वरूप

का मुझे दर्शन कराइये । ४ ।

Bhagwat Geeta dwitiya adhyay ।। श्रीमद्भगवद्गीता महत्तव

इस प्रकार अर्जुनके प्रार्थना करने पर श्रीकृष्णभगवान् बोले-हे पार्थ ! मेरे सैकड़ों तथा हजारों नाना प्रकार के और नाना वर्ण तथा

आकृति वाले अलौकिक रूपों को देख । ५ ।

हे भरतवंशी अर्जुन ! मेरे में आदित्यों को अर्थात् अदितिके द्वादश पुत्रों को और आठ वसुओं को, एकादश रुद्रों को तथा

दोनों अश्विनीकुमारोंको और उनचास मरुद्गणों को देख तथा और भी बहुत-से पहिले न देखे हुए आश्चर्यमय रूपों को देख । ६।

हे गुडाकेश ! * अब इस मेरे शरीर में एक जगह स्थित हुए चराचरसहित सम्पूर्ण जगत्को देख तथा और भी जो कुछ देखना चाहता है,

सो देख । ७।

परंतु मेरे को इन अपने प्राकृत नेत्रों द्वारा देखने को निःसंदेह समर्थ नहीं है, इसी से मैं तेरे लिये दिव्य अर्थात् अलौकिक चक्षु देता हूँ,

इससे  तू मेरे प्रभाव को और योगशक्ति को देख । ८ ।

Bhagwat Geeta 11 adhyay

सञ्जय बोले, हे राजन् ! महायोगेश्वर और सब पापों के नाश करने वाले भगवान्ने इस प्रकार कहकर उसके उपरान्त अर्जुन के लिये

परम ऐश्वर्ययुक्त दिव्य स्वरूप दिखाया। ९ ।

उस अनेक मुख और नेत्रों से युक्त तथा अनेक अद्भुत दर्शनों वाले एवं बहुत-से दिव्य भूषणों से युक्त और बहुत-से दिव्य शस्त्रों को

हाथों में उठाये हुए। १० ।

तथा दिव्य माला और वस्त्रों को धारण किये हुए और दिव्य गन्ध का अनुलेपन किये हुए एवं सब प्रकार के आश्चर्यो से युक्त,

सीमारहित, विराट्स्वरूप, परमदेव परमेश्वरको अर्जुनने देखा । ११ ।

हे राजन् ! आकाश में हजार सूर्यो के एक साथ उदय होने से उत्पन्न हुआ जो प्रकाश होवे; वह भी उस विश्वरूप परमात्मा के प्रकाशके

सदृश कदाचित् ही होवे। १२ ।

ऐसे आश्चर्यमय रूप को देखते हुए पाण्डु पुत्र अर्जुन ने उस काल में अनेक प्रकार से विभक्त हुए अर्थात् पृथक्-पृथक् हुए सम्पूर्ण

जगत्को, उस देवों के देव श्रीकृष्ण भगवान के शरीर में एक जगह स्थित देखा। १३ ।

उसके अनन्तर वह आश्चर्य से युक्त हुआ हर्षित रोमों वाला अर्जुन विश्वरूप परमात्मा को श्रद्धा-भक्तिसहित सिरसे प्रणाम करके हाथ

जोड़े हुए बोला। १४ ।

Bhagwat Geeta third adhayay ।। mahatmy

हे देव! आपके शरीर में सम्पूर्ण देवों को तथा अनेक भूतों के समुदायों को और कमल के आसन पर बैठे ब्रह्मा को तथा महादेव को

और सम्पूर्ण ऋषियों को तथा दिव्य सर्पोको देखता हूँ। १५ ।

हे सम्पूर्ण विश्वके स्वामिन् ! आप को अनेक हाथ, पेट, मुख और नेत्रों से युक्त तथा सब ओर से अनन्त रूपों वाला देखता हूँ, हे

विश्वरूप ! आपके न अन्त को देखता हूँ तथा न मध्यको और न आदिको ही देखता हूँ। १६ ।

Bhagwat Geeta 11 adhyay

हे विष्णो ! आपको मैं मुकुटयुक्त, गदायुक्त और चक्रयुक्त तथा सब ओर से प्रकाशमान तेज का पुञ्ज, प्रज्वलित अग्नि और सूर्य के

सदृश ज्योतियुक्त, देखने में अति गहन और अप्रमेयस्वरूप सब ओरसे देखता हूँ। १७ ।

इसलिये हे भगवन् ! आप ही जानने योग्य परम अक्षर हैं अर्थात् परब्रह्म परमात्मा हैं और आप ही इस जगत्के परम आश्रय हैं तथा

आप ही अनादि धर्म के रक्षक हैं और आप ही अविनाशी सनातन पुरुष हैं ऐसा मेरा मत है। १८ ।

हे परमेश्वर ! मैं आपको आदि, अन्त और मध्य से रहित तथा अनन्त सामर्थ्य से युक्त और अनन्त हाथों वाला तथा चन्द्र-सूर्यरूप नेत्रों

वाला और प्रज्वलित अग्निरूप मुखवाला तथा अपने तेज से इस जगत्को तपायमान करता हुआ देखता हूँ। १९।

हे महात्मन् ! यह स्वर्ग और पृथ्वी के बीच का सम्पूर्ण आकाश तथा सब दिशाएँ एक आपसे ही परिपूर्ण हैं तथा आपके इस अलौकिक

और भयंकर रूपको देखकर तीनों लोक अति व्यथाको प्राप्त हो रहे हैं। २० ।

Bhagwat geeta chautha adhyay, in hindi

हे गोविन्द ! वे सब देवताओं के समूह आप में ही प्रवेश करते हैं और कई एक भयभीत होकर हाथ जोड़े हुए आप के नाम और गुणों

का उच्चारण करते हैं तथा महर्षि और सिद्धों के समुदाय ‘कल्याण’ होवे ऐसा कहकर उत्तम-उत्तम स्तोत्रोंद्वारा आपकी स्तुति करते हैं। २१ ।

हे परमेश्वर ! जो एकादश रुद्र और द्वादश आदित्य तथा आठ वसु और साध्यगण, विश्वेदेव तथा अश्विनीकुमार और मरुद्गण और पितरों

का समुदाय तथा गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और सिद्धगणोंके समुदाय हैं, वे सब ही विस्मित आपको देखते हैं । २२ ।

हे महाबाहो ! आपके बहुत मुख और नेत्रों वाले तथा बहुत हाथ, जंघा और पैरोंवाले और बहुत उदरों वाले तथा बहुत-सी विकराल दाढ़ों

वाले महान् रूपको देखकर सब लोक व्याकुल हो रहे हैं तथा मैं भी व्याकुल हो रहा हूँ। २३ ।

Bhagwat Geeta 11 adhyay

क्योंकि हे विष्णो ! आकाश के साथ स्पर्श किये हुए देदीप्यमान अनेक रूपों से युक्त तथा फैलाये हुए मुख और प्रकाशमान विशाल

नेत्रों से युक्त आपको देखकर भयभीत अन्तःकरणवाला मैं धीरज और शान्तिको नहीं प्राप्त होता हूँ। २४ ।

हे भगवन् ! आपके विकराल दाढ़ों वाले और प्रलयकाल की अग्नि के समान प्रज्वलित मुखों को देखकर दिशाओं को नहीं जानता हूँ

और सुख को भी नहीं प्राप्त होता हूँ, इसलिये हे देवेश ! हे जगन्निवास ! आप प्रसन्न होवें । २५।

मैं देखता हूँ कि वे सब ही धृतराष्ट्र के पुत्र राजाओं के समुदाय सहित आप में प्रवेश करते हैं और भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य तथा वह कर्ण

और हमारे पक्ष के भी प्रधान योधाओंके सहित सब-के-सब । २६ ।

वेगयुक्त हुए आपके विकराल दाढ़ों वाले भयानक मुखों में प्रवेश करते हैं और कई एक चूर्ण हुए सिरोंसहित आपके दाँतों के बीच में

लगे हुए दीखते हैं। २७ ।

Bhagwat Geeta panchwa adhyay, or mahatm

हे विश्वमूर्ते ! जैसे नदियों के बहुत-से जल के प्रवाह समुद्र के ही सम्मुख दौड़ते हैं अर्थात् समुद्र में प्रवेश करते हैं, वैसे ही वे शूरवीर

मनुष्यों के समुदाय भी आपके प्रज्वलित हुए मुखों में प्रवेश करते हैं। २८ ।

अथवा जैसे पतंग मोह के वश होकर नष्ट होने के लिये प्रज्वलित अग्नि में अति वेगसे युक्त हुए प्रवेश करते हैं, वैसे ही यह सब लोग भी

अपने नाश के लिये आपके मुखों में अति वेग से युक्त हुए प्रवेश करते हैं। २९।

और आप उन सम्पूर्ण लोकों को प्रज्वलित मुखोंद्वारा ग्रसन करते हुए सब ओर से चाट रहे हैं। हे विष्णो ! आपका उग्र प्रकाश सम्पूर्ण

जगत्को तेज के द्वारा परिपूर्ण करके तपायमान करता है। ३० ।

Bhagwat Geeta 11 adhyay

हे भगवन् ! कृपा करके मेरे प्रति कहिये कि आप उग्ररूप वाले कौन हैं। हे देवों में श्रेष्ठ ! आप को नमस्कार होवे, आप प्रसन्न

होइये, आदिस्वरूप आपको मैं तत्त्वसे जानना चाहता हूँ, क्योंकि आप की प्रवृत्तिको मैं नहीं जानता। ३१ ।

इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर श्रीकृष्णभगवान् बोले, हे अर्जुन ! मैं लोकों का नाश करने वाला बढ़ा हुआ महाकाल हूँ, इस समय इन

लोकों को नष्ट करनेके लिये प्रवृत्त हुआ हूँ, इसलिये जो प्रतिपक्षियों की सेना में स्थित हुए योधालोग हैं, वे सब तेरे बिना भी नहीं रहेंगे

अर्थात् तेरे युद्ध न करनेसे भी इन सबका नाश हो जायगा। ३२ ।

इससे तू खड़ा हो और यशको प्राप्त कर तथा शत्रुओं को जीतकर धनधान्य से सम्पन्न राज्य को भोग और यह सब शूरवीर पहिले से

ही मेरे द्वारा मारे हुए हैं, हे सव्यसाचिन् ! * तू तो केवल निमित्तमात्र ही हो जा। ३३ ।

Bhagwat Geeta chhata adhyay , or mahatm.

तथा इन द्रोणाचार्य और भीष्मपितामह तथा जयद्रथ और कर्ण तथा और भी बहुत-से मेरे द्वारा मारे हुए शूरवीर योधाओंको तू मार और

भय मत कर, निःसन्देह तू युद्धमें वैरियोंको जीतेगा, इसलिये युद्ध कर । ३४ ।

इसके उपरान्त सञ्जय बोले कि हे राजन् ! केशवभगवान के इस वचन को सुनकर, मुकुटधारी अर्जुन हाथ जोड़े हुए, काँपता हुआ

नमस्कार करके, फिर भी भयभीत हुआ प्रणाम करके, भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति गद्गद वाणी से बोला। ३५।

कि हे अन्तर्यामिन् ! यह योग्य ही है कि जो आपके नाम और प्रभाव के कीर्तन से जगत् अति हर्षित होता है और अनुराग को भी प्राप्त

होता है तथा भयभीत हुए राक्षस लोग दिशाओं में भागते हैं और सब सिद्धगणों के समुदाय नमस्कार करते हैं। ३६।

Bhagwat Geeta 11 adhyay

हे महात्मन् ! ब्रह्मा के भी आदिकर्ता और सबसे बड़े आपके लिये वे कैसे नमस्कार नहीं करें। क्योंकि हे अनन्त ! हे देवेश ! हे जगन्निवास

! जो सत्, असत् और उनसे परे अक्षर अर्थात् सच्चिदानन्दघन ब्रह्म है, वह आप ही हैं। ३७।

हे प्रभो ! आप आदिदेव और सनातन पुरुष हैं, आप इस जगत्के परम आश्रय और जानने वाले तथा जानने योग्य और परमधाम हैं।

हे अनन्तरूप ! आपसे यह सब जगत् व्याप्त अर्थात् परिपूर्ण है। ३८।

हे हरे ! आप वायु, यमराज, अग्नि, वरुण, चन्द्रमा तथा प्रजा के स्वामी ब्रह्मा और ब्रह्मा के भी पिता हैं, आपके लिये हजारों बार

नमस्कार, नमस्कार होवे, आपके लिये फिर भी बारम्बार नमस्कार, नमस्कार होवे। ३९ ।

Bhagwat Geeta saptam adhyay , or mahatm

हे अनन्त सामर्थ्यवाले ! आपके लिये आगेसे और पीछेसे भी नमस्कार होवे, सर्वात्मन् ! आपके लिये सब ओरसे ही नमस्कार होवे,

क्योंकि अनन्त पराक्रमशाली आप सब संसारको व्याप्त किये हुए हैं, इससे आप ही सर्वरूप हैं। ४० ।

हे परमेश्वर ! सखा ऐसे मानकर आपके इस प्रभाव को न जानते हुए मेरे द्वारा प्रेम से अथवा प्रमाद से भी हे कृष्ण ! हे यादव ! हे सखे !

इस प्रकार जो कुछ हठपूर्वक कहा गया है। ४१ ।

और हे अच्युत ! जो आप हँसी के लिये विहार, शय्या, आसन और भोजनादिकों में अकेले अथवा उन सखाओं के सामने भी अपमानित

किये गये हैं, वह सब अपराध अप्रमेय-स्वरूप अर्थात् अचिन्त्य प्रभाववाले आपसे मैं क्षमा कराता हूँ। ४२ ।

हे विश्वेश्वर ! आप इस चराचर जगत्के पिता और गुरु से भी बड़े गुरु एवं अतिपूजनीय हैं, हे अतिशय प्रभाववाले ! तीनों लोकों में आपके

समान भी दूसरा कोई नहीं है, फिर अधिक कैसे होवे ? । ४३ ।

Bhagwat Geeta 11 adhyay

इससे हे प्रभो ! मैं शरीर को अच्छी प्रकार चरणोंमें रख के और प्रणाम करके, स्तुति करने योग्य आप ईश्वर को प्रसन्न होने के लिये

प्रार्थना करता हूँ । हे देव ! पिता जैसे पुत्र के और सखा जैसे सखा के और पति जैसे प्रिय स्त्री के वैसे ही आप भी मेरे अपराध को सहन

करने के लिये योग्य हैं। ४४ ।

Bhagwat Geeta ashtam adhyay, or mahatm

हे विश्वमूर्ते ! मैं पहिले न देखे हुए आश्चर्यमय आप के इस रूप को देखकर हर्षित हो रहा हूँ और मेरा मन भय से अति व्याकुल भी हो

रहा है, इसलिये हे देव ! आप उस अपने चतुर्भुजरूप को ही मेरे लिये दिखाइये, हे देवेश ! हे जगन्निवास ! प्रसन्न होइये । ४५ ।

हे विष्णो ! मैं वैसे ही आपको मुकुट धारण किये हुए तथा गदा और चक्र हाथ में लिये हुए देखना चाहता हूँ, इसलिये हे विश्वरूप ! हे

सहस्रबाहो ! आप उस ही चतुर्भुजरूप से युक्त होइये । ४६ ।

ॐ श्रीपरमात्मने नमः

इस प्रकार अर्जुन की प्रार्थना को सुनकर श्रीकृष्णभगवान् बोले- हे अर्जुन ! अनुग्रहपूर्वक मैंने अपनी योगशक्ति के प्रभाव से यह मेरा

परम तेजोमय, सबका आदि और सीमारहित विराटप तेरे को दिखाया है जो कि तेरे सिवा दूसरे से पहिले नहीं देखा गया। ४७ ।

हे अर्जुन ! मनुष्यलोक में इस प्रकार विश्वरूप वाला मैं न वेद और यज्ञों के अध्ययन से तथा न दानसे और न क्रियाओं से और न उग्र तपों

से ही तेरे सिवा दूसरे से देखा जाने को शक्य हूँ। ४८ ।

Bhagwat Geeta navam adhyay, or mahatm

इस प्रकार के मेरे इस विकराल रूप को देखकर तेरे को व्याकुलता न होवे और मूढभाव भी न होवे और भयरहित, प्रीतियुक्त मनवाला

तू उस ही मेरे इस शङ्ख, चक्र, गदा, पद्मसहित चतुर्भुजरूप को फिर देख । ४९ ।

उसके उपरान्त सञ्जय बोले, हे राजन् ! वासुदेव भगवान्ने अर्जुन के प्रति इस प्रकार कहकर फिर वैसे ही अपने चतुर्भुजरूप को दिखाया

और फिर महात्मा कृष्णने सौम्यमूर्ति होकर इस भयभीत हुए अर्जुनको धीरज दिया । ५० ।

Bhagwat Geeta 11 adhyay

उसके उपरान्त अर्जुन बोले, हे जनार्दन ! आपके इस अति शान्त मनुष्य रूप को देखकर अब मैं शान्तचित्त हुआ अपने स्वभाव को

प्राप्त गया हूँ। ५१।

इस प्रकार अर्जुन के वचन को सुनकर श्रीकृष्णभगवान् बोले, हे अर्जुन ! मेरा यह चतुर्भुजरूप देखने को अतिदुर्लभ है कि जिसको तुमने

देखा है; क्योंकि देवता भी सदा इस रूपके दर्शन करने की इच्छा वाले हैं। ५२ ।

हे अर्जुन ! न वेदों से, न तप से, न दान से और न यज्ञ से इस प्रकार चतुर्भुजरूप वाला मैं देखा जाने को शक्य हूँ कि जैसे मेरे को तुमने

देखा है। ५३ ।

परंतु हे श्रेष्ठ तपवाले अर्जुन ! अनन्य* भक्ति करके तो इस प्रकार चतुर्भुजरूप वाला मैं प्रत्यक्ष देखने के लिये और तत्त्व से जानने के लिये

तथा प्रवेश करने के लिये अर्थात् एकीभाव से प्राप्त होने के लिये भी शक्य हूँ। ५४ ।

हे अर्जुन ! जो पुरुष केवल मेरे ही लिये, सब कुछ मेरा समझता हुआ, यज्ञ, दान और तप आदि सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मो को करने वाला है

और मेरे परायण है अर्थात् मेरे को परम आश्रय और परम गति मान कर मेरी प्राप्तिके लिये तत्पर है तथा मेरा भक्त है अर्थात् मेरे नाम,

गुण, प्रभाव और रहस्य के श्रवण, कीर्तन, मनन, ध्यान और पठन-पाठन का प्रेमसहित निष्कामभाव से निरन्तर अभ्यास करने वाला है

और आसक्तिरहित है अर्थात् स्त्री, पुत्र और धनादि सम्पूर्ण सांसारिक पदार्थों में स्नेह रहित है और सम्पूर्ण भूत-प्राणियों में वैरभाव से

रहित है* ऐसा वह अनन्य भक्तिवाला पुरुष मेरे को ही प्राप्त होता है। ५५।

इति श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्ण और अर्जुनके संवादमें ‘विश्वरूपदर्शनयोग’ नामक

ग्यारहवाँ अध्याय ।।११।।

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